अंतिम सत्य सुनकर राजुकमार की खुली आंखें, मिला यह ज्ञान

प्राचीन काल की घटना है। साम्राज्य गुप्त के पुत्र पुष्यमित्र अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें अपनी सुंदरता का बहुत अभिमान था। एक बार वह मंत्रीपुत्र सुयश के साथ नगर भ्रमण को निकले। उन्होंने देखा कि एक स्थान पर शवदाह हो रहा है। राजकुमार पुष्यमित्र ने पूछा, ‘यह क्या हो रहा है?’ सुयश ने कहा, ‘यहां किसी मृत व्यक्ति का दाह संस्कार हो रहा है।’ राजकुमार ने कहा, ‘अवश्य ही यह व्यक्ति कुरूप होगा।’ सुयष ने उत्तर दिया,‘नहीं, मरने पर प्रत्येक व्यक्ति का शरीर सड़ने-गलने लगता है, इसलिए उसे जला ही देना पड़ता है।’

राजकुमार पुष्यमित्र को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि हर व्यक्ति को एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना पड़ता है। इस सत्य का आभास होने पर उसे यह अनुभव होने लगा कि उसका सुंदर शरीर भी एक दिन नष्ट हो जाएगा। उसका मन खिन्न हो उठा। उसने अपने मन की व्यथा राजगुरु से व्यक्त की। राजगुरु राजकुमार को अपने गुरु के पास लेकर गए। वह राजकुमार की खिन्नता को समझकर बोले, ‘तुम इस शरीर के अंतिम परिणाम की चिंता से व्यथित हो?’ राजकुमार ने हां में उत्तर दिया। राजगुरु के गुरु बोले, ‘आज तुम जिस भवन के स्वामी हो, यदि कल उसके जीर्ण होने पर तुम्हें अन्यत्र निवास करना पड़े और वह भवन नष्ट हो जाए तो तुम पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’ राजकुमार ने उत्तर दिया, ‘कोई विषेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। जो चीज जीर्ण हो जाए, उसे त्याग देना ही उत्तम है।’

वह बोले, ‘बस, यही नियम शरीर पर भी लागू होता है। इसमें निवास करने वाली आत्मा शरीर के जीर्ण होने पर इसका त्याग कर देती है और यह शरीर नष्ट हो जाता है। उसके लिए चिंतित मत होओ। अमर तो मात्र हमारे किए शुभ या अशुभ कर्मों के परिणाम होते हैं।’ गुरु की बातों ने पुष्यमित्र की आंखें खोल दीं।- संकलन : मुकेश ऋषि