एक दिन की बात है। पूरा दरबार मंत्रमुग्ध सा नीलांजना का नृत्य देख रहा था। अचानक वह मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ीं और अचेत हो गईं। हालांकि कुछ ही क्षणों में उसके अंदर चेतना लौट आई और वह फिर से नृत्य करने लगीं। नृत्य की समाप्ति पर वह फिर अचेत हुईं लेकिन इस बार चेतना वापस नहीं आई। मृत्यु के इस दृश्य का ऋषभदेव के मन पर गहरा असर हुआ। वह सोच में डूब गए, ‘मृत्यु कभी भी, किसी की भी हो सकती है। हम मूर्ख हैं जो जीवन में स्थायित्व देखते हैं। यदि जीवन का सच यही है तो इस सच को जानना होगा लेकिन इसके लिए पहले राजकीय दायित्व से मुक्ति पानी होगी।’
उन्होंने राजपाट बच्चों को सौंपा, सिर मुंडवाया और संन्यासी भेष में जंगल की तरफ चल पड़े। वहां लंबी तपस्या से ज्ञान प्राप्त किया और फिर लोगों को जीवन और मृत्यु का रहस्य समझाने में लग गए। आगे चलकर जीवन संबंधी उनके उपदेशों को आदि पुराण नामक ग्रंथ में संकलित किया गया जिसे आज भी जैन मुनियों द्वारा जैन समाज में पहुंचाया जाता है। आज भी मृत्यु और मैयत में ऋषभदेव जैसा वैराग्य हमें आता तो है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में हम वापस सांसारिक वृत्तियों में लीन हो जाते हैं। – संकलन : हरिप्रसाद राय