आखिर ऐसा क्‍या हुआ कि राजा अपने ही राज्‍य में करने लगा नौकरी

एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म में समय लगाए। पर राजा की समस्या यह थी कि उसे कोई योग्य वारिस नहीं मिल पा रहा था। राजा का पुत्र छोटा था, जो राजा बनने योग्य नहीं था। इस विषय पर काफी सोच-विचार के बाद राजा अपने गुरु के पास पहुंचा। राजा ने अपनी इन उलझनों को गुरु को बताया।

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गुरु ने कहा, ‘राज्य की बागडोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा सक्षम पात्र मिल सकता है?’ राजा ने कहा, ‘मेरे राज्य को आप से बेहतर भला कौन संभाल सकता है। लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागडोर आपके हाथों में सौंप देता हूं।’ गुरु ने पूछा, ‘अब तुम क्या करोगे?’ राजा बोला, ‘मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूंगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए।’ गुरु ने कहा, ‘खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूंगा।’ राजा बोला, ‘फिर ठीक है, मैं कहीं छोटी-मोटी नौकरी कर लूंगा, उससे मेरा गुजारा चल जाएगा।’

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गुरु ने कहा, ‘अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहां कर लो। एक पद खाली है, क्या तुम मेरे यहां नौकरी करना चाहोगे?’ राजा बोला, ‘कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूं।’ गुरु ने कहा, ‘मेरे यहां राजा की नौकरी खाली है। मैं चाहता हूं कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना।’

एक वर्ष बाद गुरु ने लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था। राजा जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य संभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था। अब राजा को कोई चिंता नहीं थी। राज्य वही, राजा वही, काम वही, बस दृष्टिकोण बदल गया। राजा की तरह ही हमें सोचना चाहिए कि हम सब ईश्वर की नौकरी कर रहे हैं, सब कुछ उसी पर छोड़ देना है।

संकलन : आर.डी. अग्रवाल ‘प्रेमी’