पार्टी के लोग एक स्थानीय प्रतिनिधि मंडल लेकर माखनलाल चतुर्वेदी के यहां पहुंचे। उन्होंने निवेदन किया, ‘यदि आप राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार कर लें, तो हिंदी साहित्य के साथ-साथ मध्यप्रदेश का भी प्रतिनिधित्व हो जाएगा।’ उन्होंने हंसकर टाल दिया और उन्हें लौटा दिया। बहुत सोच-विचार के बाद राजेंद्र बाबू ने इसकी जिम्मेदारी बनारसीदास चतुर्वेदी को सौंपी। बनारसीदास जी, राष्ट्रपति के दूत बनकर माखनलाल जी के पास पहुंचे और उन्होंने इसके लिए आग्रह किया। वह तब भी नहीं माने और प्रस्ताव को बड़ी विनम्रता से ठुकरा दिया। उन दिनों माखनलाल के पास एक सहायक था जो उनकी पढ़ाई-लिखाई में सहायता करता था।
एक दिन मौका देखकर सहायक ने उनसे पूछा, ‘दादा, आप इतनी महत्वपूर्ण सदस्यता क्यों ठुकरा रहे हैं?’ माखनलाल ने समझाया, ‘देखो, कला और साहित्य का जीवन में वास्तविक अनुसरण होना चाहिए। साहित्य में तुम त्याग और सादगी का गुणगान करो मगर वास्तविक जीवन में उसका लालच बना रहे, तो वह कला कभी अपनी ऊंचाई तक नहीं पहुंचती।’ आज के समय में संसद सदस्य बनने के लिए होने वाली मारा-मारी को देखें तो यकीन ही नहीं होता कि उस जमाने में कला और साहित्य के प्रति लोग इस कदर नि:स्वार्थ और समर्पित हुआ करते थे।– संकलन : दीनदयाल मुरारका