‘परमात्मा’, आत्मा का परम रूप – साधारण इन्सान परमात्मा को अपने से अलग समझता है, परन्तु आत्मा और परमात्मा अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही परम तत्व के दो नाम हैं, अंतर सिर्फ इतना है कि ‘परमात्मा’, आत्मा का परम रूप है। ‘परम’ का अर्थ है, संपूर्ण या विराट। आत्मा और परमात्मा को हम जल की एक बूंद और अथाह समुद्र के रूप में समझ सकते हैं। आत्मा उस परम तत्व की एक बूंद और परमात्मा उस परम तत्व का अनंत लहराता समुद्र है। आत्मा, परमात्मा और शरीर के सम्बन्ध को समझाने के लिए धर्मशास्त्रों में अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। मानव शरीर एक घड़े के समान है, इसके अंदर आत्मा उसी प्रकार से विद्यमान है, जैसे घड़े के अन्दर समाया हुआ विराट सागर। एक घड़ा लेकर जब हम उस घड़े में सागर से पानी भरेंगे तो घड़े के अंदर समाए जल को ही हम आत्मा कहेंगे और इसके बाहर स्थित अथाह समुद्र को परमात्मा। परमात्मा का अंश आत्मा, शरीर रूपी घड़े के अन्दर उसी प्रकार से विद्यमान है जैसे अनन्त समुद्र की कुछ बूंदों को घड़े के अन्दर भरा हो। इस दृष्टांत को समझने के लिए कबीरदास जी ने कहा है,
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तथ कहौ गियानी।।
अपने शरीर को यदि हम एक घड़ा मान लें, तो हमारी इन्द्रियां, मन एवं अहंकार उसकी मोटी दीवारें हैं। जिस क्षण किसी भी कारण से घड़े की दीवार टूट जाती है, उसी समय मनुष्य की आत्मा परम तत्व में विलीन हो जाती है। संसार में जो कुछ भी है, चाहे वो सूक्ष्म हो या स्थूल, सब परमात्मा ही है। परमात्मा रूपी ऊर्जा के बिना ब्रह्माण्ड का संचालन असंभव है। पूरे ब्रह्माण्ड को एक ही ऊर्जा चला रही है।
मृत्यु अन्त नहीं प्रारंभ है
धर्मशास्त्रों में शरीर को आत्मा का कारावास कहा गया है, शरीर त्याग के समय शरीर बंधनों से जकड़ी हुई आत्मा की दशा ‘सांप-छछूंदर’ जैसी होती है, क्योंकि शरीर का बंधन एवं मोह, आत्मा को उस शरीर की ओर आकर्षित करता है और जब शरीर उस आत्मा को संभालने के लायक नहीं रहता तो व्यक्ति की आत्मा शरीर का कारावास तोड़कर बाहर निकलती है, जिसे मृत्यु कहते हैं। किसी भी व्यक्ति की मृत्यु होने पर दुनिया वाले उस व्यक्ति का अन्त मान लेते हैं परन्तु धर्मशास्त्रों के अनुसार मृत्यु अन्त नहीं प्रारम्भ है, इसलिए अच्छे कर्म हमेशा करते रहना चाहिए। आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है, जो ईश्वरीय विधान के अनुसार पृथ्वी पर विभिन्न योनियों में जन्म लेती है। मनुष्य जन्म लेने के बाद आत्मा का परम उद्देश्य मोक्ष की ओर अग्रसर होना है।
कड़वा सच
प्रत्येक दिन काल हमें मृत्यु की ओर सरका रहा है, सारा संसार धीरे-धीरे मृत्यु की ओर सरक रहा है, समय रहते जाग जाना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। गरूणपुराण एवं गीता आदि धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन से व्यक्ति को अपनी आत्मा से संबंधित तत्वों का बोध होता है। गीता के उपदेशों में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्मा का अंत नहीं होता, वह सिर्फ शरीर रूपी वस्त्र बदलती है। आत्मा, परमात्मा के अस्तित्व को सभी को समझना अति आवश्यक है, आत्मज्ञान के विषय में कबीरदास जी भी कहते हैं,
आत्मज्ञान बिना सब सूनो, क्या मथुरा क्या काशी।।
ज्योतिषाचार्य आशुतोष वार्ष्णेय, ग्रह नक्षत्रम्, प्रयागराज