नरः प्रमादी सुकथं न हन्यते ये सेवते पंचभिरेव पंचपरमात्मा द्वारा जीव को पांच ज्ञानेन्द्रियां प्रदान की गई हैं। श्रवण, त्वक,चक्षु, जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय। इनके क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध विषय हैं।
इन इन्द्रियों में से किसी एक का सेवन करने से, उपभोग करने से एक जीव नाश को प्राप्त हो जाता है। तो मनुष्य क्यों न नाश को प्राप्त होगा जो पांचों इन्द्रियों का सेवन, भोग एक साथ करता है, अर्थात निश्चय ही मनुष्य नाश को प्राप्त होगा।
कुरंग – हिरण। हिरण को वीणा का स्वर बहुत प्रिय है। हिरण पकड़ने के लिए भीलनी जंगल में वीणा वादन करती है, उसके कर्णप्रिय नाद के वशीभूत हिरण वहाँ खींचा चला आता है और आत्मविभोर होकर सुनने लगता है। पहले से घात लगाये भील स्तब्ध हिरण को जाल में फंसा लेते हैं। श्रवणेन्द्रिय के कारत वह मारा जाता है।
मातंग – हाथी। हाथी को स्पर्श सुख प्रिय है। दो कुटनी, प्रशिक्षित हाथी जंगल में ऊंची आवाज में चिघाड़ते हैं।आवाज सुनकर स्पर्श सुखाभिलाषी हाथी वहाँ आता है और दोनों प्रशिक्षित हाथी उसको अपने मध्य लेकर पीछे चलते जाते हैं।स्पर्श सुख से आह्लादित हाथी आंख बंद कर पीछे चलता रहता है और पहले से तैयार गड्ढे में गिर जाता है और दोनों कुटनी गड्ढे के किनारे रुक जाते हैं।गड्ढे में गिरे हाथी को कुछ दिन भोजन नहीं दिया जाता और बलहीन होने पर उसे निकाल लिया जाता है। त्वचेन्द्रिय के भोग से एक जीव विनष्ट।
पतंग – उड़नेवाले कीट। दीपशिखा के रूप पर उन्मत्त जीव का विनाश-दृश्येन्द्रिय के कारण।
भृंग – भ्रमर। गंधलोभी भौंरा कमलपुष्प में आस्वादन करता ही रहता है कि सूर्यास्त ह़ोजाता है। पुष्प में बन्द भ्रमर विचार करता है।
मीन – सर्वविदित है कि मत्स्याखेटी कंटिये में कोई चारा पिरोकर जल में डालता है, रसना सुख के कारण मछली उसे ग्रास बनाती है परंतु इस लोभ के कारण वह स्वयं ही ग्रास बन जाती है।