बार-बार मना करने पर भी वह नहीं मानीं। हारकर पुलिस नेमीचंद के साथ-साथ ताराबाई को भी लेकर थाने चली। वह उस समय गर्भवती थीं। पुलिस की गाड़ी जब चलने लगी तो नेमीचंद के अनेक क्रांतिकारी साथी और महिलाएं भी साथ-साथ चल दिए। पुलिस उन्हें मना करती रही, लेकिन वे नहीं रुके। रास्ते में कई बार पुलिस के साथ उनकी हाथापाई भी हुई। आखिरकार पुलिस स्टेशन पहुंचने पर थानेदार ने नेमीचंद को तो थाने में बंद कर दिया लेकिन ताराबाई से वापस जाने को कहा। वह थाने पहुंचकर और भी जोश में आ गईं। आजादी के नारे लगाते हुए वहीं अनशन पर बैठ गईं। तब पुलिस ने मजबूर होकर ताराबाई को भी गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार होने पर वह ऐसे खुश हुईं जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई हो।
अगले दिन ताराबाई को कोर्ट में पेश किया गया। चूंकि उनके खिलाफ कोई गंभीर इल्जाम नहीं था, इसलिए जज ने उन्हें कोर्ट उठने तक की सजा देकर छोड़ दिया। वह घर तो लौटीं लेकिन उसके बाद दोगुने जोश से लोगों को जागरूक करने में लग गईं। उन्होंने आसपास के इलाके की महिलाओं में क्रांति का बिगुल फूंक दिया। ऐसी क्रांतिकारी महिलाओं के त्याग और संघर्ष के कारण ही हमें 1947 में आजादी मिल पाई।– संकलन : रमेश जैन