इन पंक्तियों पर पड़ी थी जगदीश चंद्र बसु की नजर, बन गए विश्व के महान वैज्ञानिक

संकलन: विनीता चैल
जगदीश अपने प्राध्यापक प्रफुल्लचंद राय को प्रेरणास्रोत मानते थे। उनके बताए मार्ग का वह सदा अनुसरण करते थे। जगदीश प्रफुल्लचंद को प्यार से प्रफुल्ल दा कहते थे। जगदीश को अपनी मां से पता चला कि प्रफुल्ल दा को कैंसर जैसी भयंकर बीमारी हो गई है। तब से वह प्रफुल्ल दा का साथ नहीं छोड़ते थे।

एक दिन की बात है। प्रफुल्लचंद राय अपने कॉलेज जा रहे थे। संयोग से उसी समय दो बच्चे सड़क पार कर रहे थे। सामने से आ रही एक कार का उन्हें बिल्कुल ही ध्यान न था। प्रफुल्लचंद ने अचानक उस ओर देखा, कार एकदम पास आ चुकी थी। उन्होंने कलाबाजी खाकर दोनों बच्चों को किनारे की ओर कर दिया परंतु वह स्वयं का नियंत्रण न रख सके और अपने दोनों पैर गंवा बैठे। प्रफुल्लचंद को अपनी टांगें गंवाने का उतना अफसोस नहीं था, क्योंकि उन्हें तो उन बच्चों की जान बचाने का संतोष था। अपने गुरु प्रफुल्लचंद की हालत देखकर जगदीश रो पड़े। प्रफुल्लचंद ने उन्हें अपने सीने से लगाया और सांत्वना दी। कुछ दिनों में उनकी बीमारी बढ़ने लगी। एक दिन उन्होंने जगदीश को अपने पास बुलाया और अपना वायलिन सौंप दिया। इसके बाद वह अपना कविता संग्रह पूरा करने में लग गए।

एक शाम प्रफुल्लचंद ने जगदीश को पानी लाने को कहा। किंतु जब तक जगदीश पानी लेकर लौटे तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। मरने के बाद भी उनके होठों पर मुस्कान थी। जगदीश ने जब उन्हें इस हालत में देखा तो उनके मुंह से चीख निकल गई। तभी जगदीश की नजर उनकी लिखी आखिरी पंक्तियों पर पड़ी : जीवन के दुख से घबराकर/अपने मन को क्यों मुरझाएं/धूपछांव तो प्रतिपल प्रतिक्षण/आओ हम केवल मुस्काएं। ये पंक्तियां जगदीश के जीवन की प्रेरणा बन गई। इन्हीं पंक्तियों को जीवन में अपनाकर वह विश्व के महान वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद्र बसु बने।