इसलिए 32 साल की उम्र में ही शंकराचार्य ने देह त्याग दिया

जन्म से पहले तय हो गया था अल्पायु होंगे शंकराचार्य

आदिगुरु शंकराचार्य का जन्‍म केरल के कालड़ी गांव में ब्राह्मण दंपत्ति शिवगुरु नामपुद्रि और विशिष्‍टा देवी के घर में भोलेनाथ की कृपा से हुआ था। इस संबंध में कथा मिलती है कि शिवगुरु ने अपनी पत्‍नी के साथ पुत्र प्राप्ति के लिए शिवजी की आराधना की। इसके बाद शिवजी ने प्रसन्‍न होकर उन्‍हें एक पुत्र का वरदान दिया लेकिन यह शर्त रखी कि पुत्र सर्वज्ञ होगा तो अल्‍पायु होगा। यदि दीर्घायु पुत्र की कामना है तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा। इसपर शिवगुरु ने अल्‍पायु सर्वज्ञ पुत्र का वरदान मांगा। इसके बाद भोलेनाथ ने स्‍वयं ही उनके घर पर जन्‍म लेने का वरदान दिया। इस तरह वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन आदि गुरु का जन्‍म हुआ और उनका नाम शंकर रखा गया।

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बचपन में ही कंठस्‍थ हो गए थे सारे धर्मग्रंथ

बचपन में ही कंठस्‍थ हो गए थे सारे धर्मग्रंथ

बहुत ही कम उम्र में सिर से पिता का साया उठ गया। इसके बाद मां विशिष्‍टा देवी ने शंकराचार्य को वेदों का अध्‍ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया। गुरुजन इनके विलक्षण ज्ञान से चकित थे। शंकराचार्य को पहले से ही वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत सहित सभी धर्मग्रंथ कंठस्‍थ थे।

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मां के स्नान के लिए शंकराचार्य ने मोड़ दी नदी की दिशा

मां के स्नान के लिए शंकराचार्य ने मोड़ दी नदी की दिशा

शंकराचार्य जी अपनी मां की इतनी सेवा और सम्‍मान करते थे कि उनके गांव से दूर बहने वाली नदी को भी अपनी दिशा मोड़नी पड़ी। कथा मिलती है कि शंकराचार्य जी की मां को स्‍नान के लिए पूर्णा नदी तक जाना पड़ता था, वह गांव से बहुत दूर बहती थी। लेकिन शंकराचार्यजी की मातृ भक्ति को देखकर नदी ने भी अपना रुख उनके गांव कालड़ी की ओर मोड़ दिया।

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इस तरह शंकराचार्य बने संन्यासी

इस तरह शंकराचार्य बने संन्यासी

कथा मिलती है कि एक दिन शंकराचार्य ने अपनी मां से संन्‍यास लेने की बात कही। एक मात्र पुत्र के संन्‍यासी बनने पर वह सहमत नहीं हुई। इसके बाद शंकराचार्यजी ने उनसे नारद मुनि के संन्‍यास जीवन में प्रवेश लेने की घटना का उदाहरण दिया कि किस तरह से वह संन्‍यासी बनने चाहते थे लेकिन उनकी मां ने आज्ञा नहीं दी। एक दिन सर्पदंश से उनकी मां का देहावसान हो गया। इसके बाद परिस्थितियों के चलते नारद मुनि संन्‍यासी बन गए। इसपर विशिष्‍टा देवी को काफी दु:ख हुआ। लेकिन शंकराचार्य ने कहा कि उनपर तो सदैव ही मातृछाया रहेगी।

साथ ही उन्‍होंने अपनी मां को यह वचन दिया कि वह जीवन के अंतिम समय में उनके ही साथ रहेंगे। साथ ही उनका दाह-संस्‍कार भी स्‍वयं ही करेंगे। इस तरह उन्‍हें संन्‍यासी बनने की आज्ञा मिली और वह संन्‍यासी जीवन में आगे बढ़ गए। एक अन्‍य कथा मिलती है कि एक बार नदी में मगरमच्‍छ ने उनके पांव पकड़ लिए। इसपर उन्‍होंने अपनी मां से कहा कि मुझे संन्‍यासी जीवन में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए तभी यह मेरे पैर छोड़ेगा। बेटे के प्राण संकट में जानकर मां ने संन्यास की आज्ञा दे दी। मगरमच्छ ने शंकराचार्य के पैर छोड़ दिए।

ऐसे किया वचन का पालन, जो परंपरा बन गई

ऐसे किया वचन का पालन, जो परंपरा बन गई

मां को दिए वचन के मुताबिक जब शंकराचार्य को अपनी मां के अंतिम समय का आभास हुआ तो वह अपने गांव पहुंच गए। मां ने उन्‍हें देखकर अंतिम सांस ली। इसके बाद जब दाह-संस्‍कार की बात आई तो सभी ने उनका यह कहकर विरोध किया कि वह तो संन्‍यासी हैं और वह ऐसा नहीं कर सकते। इसपर शंकराचार्य ने कहा कि उन्‍होंने जब अपनी मां को वचन दिया था तब वह संन्‍यासी नहीं थे। सभी के विरोध करने के बाद भी उन्‍होंने अपनी मां का दाह-संस्‍कार किया। लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया। शंकराचार्य ने घर के सामने ही मां की चिता सजाई और अंतिम क्रिया की। इसके बाद यह पंरपरा ही बन गई। आज भी केरल के कालड़ी में घर के सामने ही दाह-संस्‍कार किया जाता है।

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शंकराचार्य का भारत भ्रमण और शास्‍त्रार्थ

शंकराचार्य का भारत भ्रमण और शास्‍त्रार्थ

शंकराचार्य केरल से पदयात्रा करते हुए काशी पहुंचे, वहां से उन्‍होंने योग शिक्षा और अद्वैत ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति की। इसके बाद वह बिहार के महिषी पहुंचे, वहां पर आचार्य मंडन मिश्र को शास्‍त्रार्थ में हराया। हालांकि उनकी पत्‍नी भारती से वह रति ज्ञान में हार गए। लेकिन वह बाल ब्रह्मचारी थे तो उन्‍होंने देवी भारती से कुछ समय मांगा और परकाया में प्रवेश करके रति ज्ञान प्राप्‍त कर दोबारा भारती के साथ शास्‍त्रार्थ कर उन्‍हें परास्‍त कर दिया। शंकराचार्य जी ने 32 वर्ष की आयु में केदारनाथ के निकट अपने प्राण त्‍यागे। आदि गुरु शंकराचार्य ने ही देश के चारो कोनों में बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवधर्न पीठ की स्‍थापना की। जो बाद में शंकराचार्य पीठ कहलाए।

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