संकलन: हफीज किदवई
बचपन में ही पिता की संगत ने उसे संस्कृत का महारथी बना दिया था। इसके अलावा मां पार्वती बाई ने उसमें ऐसे संस्कार भर दिए थे कि कठिन चुनौतियां उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती थीं। वह पहले से भी ज्यादा चमक कर उन चुनौतियों से बाहर आता था। देश-दुनिया को तो उसकी ये विशेषताएं बात में पता चलीं, मगर उसके करीबियों को इनकी झलक समय-समय पर मिलती रहती थी।
एक दिन जब वह क्लास पहुंचा तो देखा कि वहां चारों ओर कूड़ा फैला है। इससे पहले कि वह किसी से कुछ पूछता, क्लास में टीचर आ गए। उन्होंने कहा, ‘सफाई पर इतना जोर दिए जाने के बावजूद बच्चे कूड़ा फैलाएं यह स्वीकार्य नहीं हो सकता। बताओ किसने ये गंदगी फैलाई है?’ बार-बार पूछने पर भी किसी बच्चे ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया। अंत में टीचर ने उस होनहार विद्यार्थी से कहा, तुम बताओ किसने ये कूड़ा फैलाया। उसने पूरी संजीदगी से कहा कि वह अभी-अभी क्लास में आया है और उसे सचमुच नहीं पता कि यह कूड़ा कैसे फैला।
अब टीचर का धैर्य जवाब दे गया। टीचर ने एक साथ पूरी क्लास को सजा का फरमान सुना दिया। मगर अब वह बालक अड़ गया। उसका कहना था कि सजा सुनाने से पहले अपराध और अपराधी का पता लगाया जाना चाहिए। बगैर अपराध के सजा देना अन्याय है और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। मामला इतना बढ़ गया कि इस बालक को कहा गया, वह या तो सबके साथ दंड भुगते या स्कूल छोड़ दे।
इस विद्यार्थी ने एक झटके में स्कूल छोड़ दिया। उसका कहना था, ‘जहां अन्याय हो, वहां विरोध ही धर्म है। मैं धर्म मार्ग से नहीं डिग सकता।’ यह विद्यार्थी कोई और नहीं बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी बाल गंगाधर तिलक थे।