घटना उस समय की है जब वह एक बार पत्नी और बच्चों के साथ मुरैना से बंबई रेल से जा रहे थे। सफर के दौरान बातों ही बातों में पत्नी से पंडितजी को पता चला कि उनके एक बच्चे की उम्र तीन वर्ष हो चुकी है। पंडित जी चौंक उठे क्योंकि उस बच्चे का टिकट नहीं लिया गया था। वह सोच में पड़ गए कि यह तो सरकार के साथ सरासर बेईमानी है। लेकिन चलती ट्रेन में क्या हो सकता था। खैर वह बंबई पहुंचे तो सीधे स्टेशन मास्टर के पास गए और सारी बात बताकर जुर्माने के साथ टिकट का पैसा उनके सामने रख दिया। साथ ही माफी भी मांगी कि भूलवश ऐसा हुआ है। स्टेशन मास्टर विस्मय से उनका मुंह देखता रह गया। उसने कहा, ‘पंडित जी, चार-पांच वर्ष तक के बच्चों पर तो हमलोग ध्यान ही नहीं देते हैं। आप ऐसे पहले व्यक्ति हैं जो बच्चे के टिकट का दाम देने आए हैं।’
पंडितजी का मानना था, ‘धर्म मंदिरों में ही नहीं, जीवन की हर क्रिया-कलाप में घटित होना चाहिए।’ उन्होंने 1915 में धर्मध्यान पूर्वक अपने शरीर का त्याग किया। मुरैना का संस्कृत महाविद्यालय आज भी उनकी गौरव गाथा सुना रहा है।– संकलन : रमेश जैन