आध्यात्मिक साधनाओं में शक्तिसंचय करने की दृष्टि से नवरात्री पर्व का असाधारण महत्त्व है। इस संधिवेला में साधना का जो लाभ मिलता है, वह अन्य अवसरों पर की गई साधनाओं द्वारा नहीं मिल पाता। सूक्ष्मदर्शी जानते हैं कि इस ऋतुकाल में विशिष्ट प्रकार का चैतन्य प्रवाह- प्राण ऊर्जा प्रवाह सूक्ष्म जगत में चलता है, जिसे गायत्री अनुष्ठान के माध्यम से साधक खींचते, धारण करते और अपनी शक्ति बढ़ाते हैं। नवरात्रि में सूक्ष्म प्रकृति से जो दिव्य अनुदान बरसते हैं, उन अनुदानों के प्रभाव से आत्मिक प्रगति की दिशा में की गई साधनाएं विशेष फलवती सिद्ध होती हैं।
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नवरात्रि अपने आप में ही असाधारण हैं, क्योंकि इन्हीं दिनों अदृश्य-अविज्ञात अपनी स्वर्गीय विभूतियों को धरती पर उतारता और उससे जाग्रतों के आंतरिक भंडार भर देता है। परिणाम स्वरूप निष्ठापूर्वक साधना करने वाले अनुभव करते हैं कि इन दिनों किया गया पुरुषार्थ तत्काल कुछ-न-कुछ चमत्कारी परिणाम दर्शाता है। इस प्रकर के दैवीय चमत्कारों की एक ही पृष्ठभूमि है-उत्कृष्ट चिंतन को आदर्शवादी उपक्रम में उभारने वाला पराक्रम-पुरुषार्थ। जो इसे हजम कर पाते हैं, वे ही विभूतिवान् और सिद्ध पुरुष कहलाते हैं।
नवरात्रि साधना को प्रखर बनाने एवं साधक की निष्ठा परिपक्व करने के लिए अनुष्ठानों में जो नियम-अनुबंध रखे गए हैं, उन्हें ‘व्रत’ कहते हैं। इन व्रतों के पालन की परंपरा शास्त्रों ने इसी दृष्टि से बनाए हैं कि साधना में अधिकाधिक प्रखरता का समावेश किया जा सके। तपश्चर्याओं के तत्त्वदर्शन का सार-संक्षेप यही है कि आदर्शवादी उद्देश्यों के लिए स्वेच्छापूर्वक कष्ट सहन किया जाए। इस प्रकार की निष्ठा एवं सत्साहस ही मनोबल की वृद्धि करते हैं तथा उच्चस्तरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए ऊर्जा भंडार की तरह काम आते हैं।
नवरात्रि साधना के दिनों जिन अनुशासनों, व्रतों या तपश्चर्याओं का पालन किया जाता है, उनमें से पाँच प्रमुख हैं। ये हैं-उपवास, ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, अपनी शरीरसेवा स्वयं करना और चमड़े की वस्तुओं-चमड़े से बने जूते-चप्पल, कोट, बैग, बेल्ट आदि का परित्याग। यथा-संभव इन नियमों, व्रतों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। परंतु परिस्थितिवश यह संभव न हो तो उसमें कुछ सरलता बरतने की गुंजाइश भी है। कृच्छ चांद्रायण और सौम्य चांद्रायण व्रत का अंतर जो जानते हैं, वे इस तथ्य से भलीभाँति अवगत हैं कि साधक की शारीरक, मानसिक एवं सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप व्रतबंधों में ढील रखने का प्रावधान भी रखा गया है। नवरात्रि के दिनों जिन व्रत-नियमों का पालन करने की परंपरा है, उनमें स्थितिविशेष को देखते हुए ढील या कमी भी की जा सकती है। इसमें किसी प्रकार की हानि या विग्रह की आशंका नहीं है।
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इस प्रकार अनुशासन को नियमितता और निष्ठापूर्वक पालन करने से अनुष्ठान का उद्देश्य पूरा होता है। उक्त तत्त्वदर्शन को जीवन क्रम में समाविष्ट कर जो साधक साधना करते हैं, उनके लिए नवरात्रि साधना की चमत्कारी परिणति का लाभ ले सकना तनिक भी कठिन नहीं है।
(लेखक: गायत्री परिवार के प्रमुख और आध्यत्मिक विचारक है।)