इस बच्चे ने अंग्रेजों से सीखा फुटबॉल खेलना, भारत को बना दिया चैंपियन

संकलन: अंशुल जाटव
सन 1936 की गर्मियों की बात है। कलकत्ता (कोलकाता) के फोर्ट विलियम कॉलेज के मैदान में अंग्रेज सिपाही फुटबॉल खेल रहे थे। वहीं पर कुछ भारतीय बच्चे भी खड़े थे। उन दिनों अंग्रेज भारतीयों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे। मगर बच्चे इस उम्मीद में मैदान के बाहर खड़े थे कि अंग्रेजों की किक से जब फुटबॉल मैदान के पाले से बाहर आए तो उन्हें भी एक किक जमाने का मौका मिल जाए। उनमें से एक बच्चा मैदान के बाहर आई फुटबॉल को अंग्रेजों के ही अंदाज में किक मारकर वापस मैदान में भेज रहा था।

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उसी दौरान एक बार फुटबॉल पाले के बाहर आई तो उस बालक को किक मारने में कुछ देर हो गई। फिर तो अंग्रेज उबल पड़े। उन्होंने उस बालक को ब्लडी इंडियन कह दिया। मायूस होकर बालक वापस लौटा और पिता से फुटबॉल मांगी। लेकिन पिता ने उसे टेनिस बॉल पकड़ा दी। मगर उस बच्चे ने हार नहीं मानी और टेनिस बॉल के संग ही फुटबॉल साधना शुरू कर दी। अंग्रेज खिलाड़ियों में से सार्जेंट बर्नेट और सार्जेंट ब्लाकी ने बालक की साधना देखी तो उसे फुटबॉल दिला दी। फिर तो बालक ने अपनी टीम बना ली।

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लेकिन अब दिक्कत यह थी उसके पास बूट नहीं थे। अपने पैरों को कुचले जाने से बचाने के लिए उस बालक ने अंग्रेजों का खेल देख-देखकर पास करने की कला विकसित की। इसके बाद तो उसकी खेलयात्रा चल पड़ी। यह बालक था महान भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी एस. मेवा लाल। दोनों पैरों से गोल दागने वाले मेवा लाल ने अपने करियर में हजार से अधिक गोल दागे, जिनमें 68 तो हैट्रिक थी। मेवा लाल के ही इकलौते गोल से सन 1951 में हुए एशियाई खेलों में भारत फुटबॉल चैंपियन बना। यह कमाल था उस छोटी सी टेनिस बॉल पर की गई साधना का, जो एक बार सधी तो हमेशा सधी ही रही।