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विशुद्घ शास्त्रीय नजर से देखें तो कल्पवास क्या है इस बारे में मत्स्यपुराण में लिखा है, कल्पवास का अर्थ होता है संगम के तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना। कुंभ में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। कल्पवास पौष महीने के 11वें दिन से माघ महीने के 12वें दिन तक रहता है।
पद्म पुराण में इसका वर्णन इस तरह से किया गया है:
संगम तट पर वास करने वाले को सदाचारी, शांत मन वाला और जितेन्द्रिय होना चाहिए। कल्पवासी के मुख्य कार्य हैं-
1. तप
2. होम, और
3. दान
मत्स्यपुराण के अनुसार:
जो कल्पवास की प्रतिज्ञा करता है वह अगले जन्म में राजा के रूप में जन्म लेता है और जो मोक्ष की अभिलाषा लेकर कल्पवास करता है उसे अवश्य मोक्ष मिलता है। सवाल उठाता है कि कल्पवास क्यों और कब से चला आ रहा है। असल में कल्पवास वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है। कल्पवास का नियम हमारे यहां हजारों वर्षों से चला आ रहा है। जब इलाहाबाद तीर्थराज प्रयाग कहलाता था और यह आज की तरह विशाल शहर ना होकर ऋषियों की तपोस्थली माना जाता था। प्रयाग क्षेत्र में गंगा-जमुना के आसपास घना जंगल था। इस जंगल में ऋषि-मुनि ध्यान और तप करते थे। ऋषियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा। उनके अनुसार इस दौरान गृहस्थों को थोड़े समय के लिए शिक्षा और दीक्षा दी जाती थी।
कल्पवास के नियम के मुताबिक, इस दौरान जो भी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आता है वह पत्तों और घासफूस से बनी हुई कुटिया में रहता है जिसे पर्ण कुटी कहा जाता है। इस दौरान दिन में एक ही बार भोजन किया जाता है व मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्तिभाव का पालन किया जाता है।
यहां झोपडिय़ों में रहने वाले कल्पवासी सुबह की शुरूआत गंगा स्नान से करते हैं। उसके बाद दिन में संतों की सत्चर्चा या सत्संग किया जाता है और देर रात तक भजन, कीर्तन चलता है। इस प्रकार यह लगभग दो महीने से ज्यादा का समय सांसारिक भागदौड़ से दूर तन और मन को नई स्फूर्ति से भर देने वाला होता है।
कुदरती टीकाकरण:
सनातन हिंदू धर्म में कुंभ और कल्पवास का जिक्र आदिकाल से होता चला आया है। माना जाता है कि इस समय गंगा समेत पवित्र नदियों की धारा में साक्षात अमृत प्रवाहित होता है। यह स्नान पर्व पौष और माघ के महीने में या यों कहें कि हर छह साल बाद सर्दियों की ऋतु में प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, नासिक, उज्जैन में स्थित पवित्र नदियों के तट पर आयोजित होता है। हर 6 साल बाद होने वाले अद्र्घकुंभ और 12 साल बाद होने वाले पूर्ण कुंभ असंख्य श्रद्घालु शामिल होते हैं और एक साथ स्नान करते हैं। इसकी ख्याति दुनिया भर में फैली ख्याति को देखकर कुछ वैज्ञानिकों ने इस महापर्व को तर्क की कसौटी पर कसने का प्रयास किया। हैरानी की बात है कि उन्होंने पाया कि जाने-अनजाने हर 6 साल बाद सामूहिक स्नान की यह प्रक्रिया हमारे शरीर में रोगों से लडऩे की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ावा देती है। इससे भी बढ़कर तथ्य यह है कि इसके लिए हमें कोई दवा या बाहरी कारक की जरूरत नहीं पड़ती सबकुछ प्राकृतिक तरीके से ही हो जाता है। ऐसे ही एक अमेरिका के वैज्ञानिक रहे हैं प्रोफेसर बर्नार्ड विटलिन। यह फिलाडेल्फिया के कॉलेज ऑफ फार्मेसी एंड साइंस में प्रोफेसर थे।
शरीर में बनती हैं एंटीबॉडीज
प्रोफेसर बर्नार्ड के मुताबिक, हमारा शरीर जब रोग फैलाने वाले बैक्टीरिया, वायरस जैसे सूक्ष्मजीवों केसंपर्क में आते हैं तो हमारा शरीर उनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाता है। एंटीबॉडी प्रोटीन के बने वे कण हैं जो हमारे शरीर की कोशिकाओं में बनते हैं और बीमारियों से शरीर की रक्षा करते हैं। कुंभ स्नान और कल्पवास के जरिए कल्पवासियों का शरीर पहले तो प्रकृति में या कल्पवास करने आए दूसरे कल्पवासियों के शरीर में मौजूद नए रोगों और रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके शरीरों में इन रोगों के खिलाफ एंटीबॉडीज बननी शुरू हो जाती हैं।
बार-बार स्नान करने से शुरूआती दिनों में ही शरीर में बड़ी मात्रा में एंटीबॉडी बनती हैं। इसका असर यह होता है कि शरीर में रोग पनप नहीं पाता बल्कि उसके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा होने लगती है। इस तरह से डेंगू, चिकनगुनिया, टीबी और ऐसी दूसरी बीमारियों के खिलाफ शरीर मजबूत हो जाता है।
कम तापमान पर नहीं पनपते रोग
कुंभ स्नान सर्दियों में ही क्यों? इस सवाल पर प्रोफेसर बर्नार्ड कहते हैं कि जिस दौरान यह महापर्व होता है उस समय नदियों का जल लगभग 7-12 डिग्री के आसपास रहता है। इतने कम तापमान पर रोग फैलाने वाले जीव तेजी से पनप नहीं पाते।
कल्पवासियों का पौष्टिक भोजन
इसके बाद दूसरा अहम तत्व है भोजन। कुंभ के समय कल्पवास करने वाले श्रद्घालु शुद्घ, सात्विक भोजन करते हैं। यह भोजन रोगों का मुकाबला करने में शरीर की मदद करता है और उसकी प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ता है।
छह साल फिर शरीर होता है मजबूत
लेकिन हमारे शरीर में बनी ये एंटीबॉडीज नए रोगों या रोग फैलाने वाले जीवों के लिए बेकार साबित होने लगती हैं। नए रोगों को पनपने में कुछ समय लगता है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने व्यवस्था रखी कि हर 6 साल बाद बड़ी तादाद में जनता फिर से अद्र्घ या पूर्णकुंभ में हिस्सा लें।
इस तरह से देखा जाए तो धर्मशास्त्र और आधुनिक विज्ञान दोनों की निगाह में कुंभ वास्तव में अमृत स्नान ही है।