आमतौर पर यहां एक घंटे तक नाव की सवारी का शुल्क तीन हजार रुपए तक हो सकता है। वहीं एंड्रू टर्नर ने मुफ्त में तीर्थयात्रियों को नाव की सवारी कराई।
पर्यटक के रूप में भारत आए थे: पहली बार वह एक पर्यटक के रूप में भारत आए थे और घूमते हुए कुंभ मेले में पहुंच गए थे। उसके बाद अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने अमेरिका में नाव बनाने की कला का अध्ययन भी किया। उसके बाद वजीर्निया से शादी के बाद संगम में नाव की फेरी लगाने का विचार परवान चढ़ा, लेकिन 2001 के कुंभ मेले में वह नहीं आ सके। उस समय उनकी जुड़वां बेटियां पैदा हुई थीं। फिर कई साल तक योजना बनाने के बाद आखिरकार टर्नर ने सिडनी के उत्तर स्थित अपनी 90 एकड़ की खेतीबाड़ी से अवकाश लिया और पिछले अक्टूबर में परिवार के साथ वाराणसी पहुंच गए।
मानवता में विश्वास: चार बच्चों के पिता 45 साल के टर्नर कहते हैं कि पिछली बार जब मैं भारत में था तो मानवता में मेरा विश्वास और गहरा हुआ। मैं अकेला यात्रा कर रहा था और कई बार मेरी जान को भी खतरा पैदा हो गया और हर बार किसी न किसी भारतीय ने मेरी मदद की। इसीलिए मैं भारत आकर वह कर्ज उतारना चाहता था।
नाव बनाने में भारतीय ने की मदद: भारत पहुंचने के बाद टर्नर पहले वाराणसी के बाहर रुके लेकिन स्थानीय भाषा की जानकारी के बिना नाव बनाने के लिए सामान जुटाने में उन्हें काफी दिक्कत हुई। उनकी मदद कुछ अपरिचित लोगों ने ही की। उन्होंने टर्नर के रहने के लिए एक ऐसी जगह तलाशी, जहां वह अपनी नाव बना सकते थे। टर्नर ने नाव का नाम करुणा रखा और 24 जनवरी को यह नाव संगम तट पर पहुंची। लेकिन उसे पानी में उतरने के लिए जरूरी कागजी कार्रवाई पूरी करने में 11 दिन और लगे। उसके बाद से एंड्रू टर्नर, उनके बेटे और मित्र ने फरवरी के अंत तक यात्रियों को नाव की सवारी करवाई।
अब लौटेंगे स्वदेश: अब उनकी योजना पांच लाख की लागत वाली इस नाव को बेचकर कुछ रकम हासिल करने और फिर स्वदेश लौटने की है। टर्नर की पत्नी कैमरन बताती हैं कि मेरे बच्चों के लिए बहुत बड़ी शिक्षा रही। मेरे दो बेटों ने नाव बनाने की कला सीखी। हमने ये भी देखा कि प्रदूषित होने के बावजूद गंगा नदी का लोग यहां कितना सम्मान करते हैं।