आश्चर्य की बात थी कि महज दो दिन पहले एक-दूसरे को अपनी जान का दुश्मन समझने वाले और एक-दूसरे को संदिग्ध नजरों से देखने वाले हिंदू-मुसलमान दोनों हैदरी मंजिल में एक साथ थे, और वहां वे एक-दूसरे पर संदेह नहीं कर रहे थे। उन्हें पता चल गया था कि अगले दिन गांधीजी वहां से नोआखाली के लिए रवाना हो जाएंगे। वे आज यहां गांधी वापस जाओ का नारा लगाने नहीं, बल्कि उनका दर्शन करने आए थे। गांधीजी ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा कि नोआखाली में मुसलमानों ने यदि हिंदुओं की जान लेनी जारी रखी तो वहां भी वह अपनी जान दे देंगे। नोआखाली में शांति स्थापना के लिए वह चार महीने रहे।
सामान्य रूप से दंगों को शांत कराने का काम पुलिस और सेना करती आ रही है। राजनेता बाद में दंगा पीड़ितों से मिलने जाते रहे हैं। लेकिन ऐसे समय में जब पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा था, गांधी अपनी जान की बाजी लगाकर शांति के लिए संघर्षरत थे। वह आजादी के नशे और जश्न से कोसों दूर थे। इस तरह का साहस हमें पूरी दुनिया के नेतृत्व में नहीं दिखता है। आज भी हमें गांधी जैसे साहसी राजनेता की जरूरत है।- संकलन : हरिप्रसाद राय