जीत का यह मंत्र आज ही रट लीजिए, हमेशा आनंदित रहेंगे

आशा के कारण ही निराशा हाथ लगती है, न कि संसार की वजह से। संसार को क्या पड़ी है। संसार पूरी तरह से तटस्थ है। सब खेल तुम ही रचा रहे हो। आशा बांधते हो, इसलिए निराशा हाथ लगती है। आशा का अर्थ है, तुम चाहते हो भविष्य ऐसा हो, तुम्हारी वासना के अनुकूल हो, तुम्हारी तृष्णा के अनुकूल हो, और ये विराट अस्तित्व तुम्हारी क्षुद्र वासनाओं के अनुकूल नहीं चल सकता। और एकाध ही कोई होता तो चलता, लेकिन करोड़ों लोगों की अरबों-खरबों वासनाएं हैं। यदि उन सबकी वासनाओं के अनुकूल विश्व चले, तो एक पग भी न चल सके। अभी बिखर जाएगा। अभी खंड-खंड हो जाएगा। ये फिर ब्रह्मांड न रहेगा। इसके भीतर, जो अभी संगीत है, जो तारतम्य है, वह सब बिखर जाएगा।

तुम्हारी व्यक्तिगत आकांक्षा के कारण अस्तित्व उसका अनुसरण नहीं कर सकता। और हम छोटे से अंश हैं, जैसे सागर की तरंग.. तरंग चाहे कि सागर मेरे अनुकूल चले, ऐसा कैसे हो सकता है। और यही हम चाह रहे हैं, इसी असंभव का नाम तृष्णा है। हां, सागर के साथ तरंग चलती है, तो जरूरत जीतेगी। फिर कोई निराशा नहीं है, लेकिन ऐसे में पहले तो आशा छोड़ देनी होगी। फिर जहां ले जाए विराट। जो उसकी मर्जी।

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फिर तुम्हारी कोई आशा नहीं, इसलिए निराशा भी नहीं। आशा के बीज बोओगे, तो निराशा की फसल काटोगे। सफलता की आकांक्षा करोगे, तो असफलता के गड्ढे में गिरोगे। विजय चाहते हो, तो पराजय अवश्य मिलेगी। अगर जीतना हो, तो जीतने की बात ही छोड़ दो। फिर तुम्हें कोई हरा नहीं सकता। यदि आनंदित होना है, तो आनंदित होने की बात ही मत उठाओ। आनंद पर अपनी आशा मत टिकाओ और आनंद की वर्षा हो जाएगी। लाओत्से ने कहा कि कोई मुझे हरा नहीं सकता। उनके शिष्य ने उनसे कहा कि…लेकिन दुनिया में बड़े-बड़े पहलवान हैं। वे आपको हरा सकते हैं। लाओत्से ने कहा कि कोई मुझे नहीं हरा सकता, क्योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ हूं। हारे को कैसे हराओगे। और जो विराट के सामने हार गया, वह जीत गया।

परमात्मा के सामने कभी हार नहीं होती। वहां हारना तो विजय के हारों से लद जाना है। तुम पूछते हो कि क्या सांसर में निराशा ही निराशा हाथ लगती है? जबकि संसार पूरी तरह तटस्थ है, सब तुम पर निर्भर है। तुम अगर जगत की अंतरतम व्यवस्था के साथ चलो, तो जीत ही जीत है। आशा के दीप जलेंगे। ऐसे दीप जलेंगे कि दीपावली हो जाएगी। ऐसे दीप जलेंगे कि कभी बुझ नहीं सकते। तुम ऐसे सिंहासन पर विराजमान हो जाओगे कि कोई हिला नहीं सकता। मगर ये सौभाग्य उनको मिलता है, जो अपने अहंकार को परमात्मा के चरणों में चढ़ाने की हिम्मत रखते हैं। लेकिन यदि तुम चाहो कि तुम्हारा अहंकार जीते, तो बुरी मात खाओगे। जितना बड़ा अहंकार, उतनी बड़ी मात। जो इतनी असफलताएं, इतने विषाद, तुम्हारे जीवन में आते हैं, ये तुमने ही पुकारे हैं। ये अहंकार चुंबक की तरह इनको खींचता है। अहंकार भ्रांति है। तुम अलग नहीं हो, इसलिए अस्तित्व से तुम्हारी आंकाक्षा क्या होगी? तुम अलग होते, तो आकांक्षा अलग हो सकती थी। आशा अलग हो सकती। तुम विराट के साथ एक ही हो।

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जैसे कोई वृक्ष का पत्ता निजी आकांक्षा रखता हो, तो मुश्किल में पड़ेगा। जब वृक्ष नहीं नाच रहा है, तो पत्ता कैसे नाच सकता है। लेकिन जब वृक्ष नाच रहा है, तो पत्ता अपने को नाचने से कैसे रोक सकता है। यदि पत्ता अलग चलेगा, तो हर घड़ी उसको निराशा हाथ लगेगी। लगेगा कि सारा नियोजन मेरे विपरीत है। सब मेरे दुश्मन हैं, जबकि कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है, सिवाय तुम्हारे और कोई तुम्हारा मित्र नहीं है, सिवाय तुम्हारे। यदि अहंकार को गिरा दो, तो तुम अपने मित्र हो, अगर अहंकार को उठाए रखो, तो तुम अपने शत्रु हो।

संसार को दोष मत दो। दोष तुम्हारे अपने ही मन का है। लेकिन अपने को दोष कोई देना नहीं चाहता। हम हमेशा कोशिश करते हैं कि कोई और मिल जाए, जिसके कंधे पर हम अपने दोषों का बोझ रख दें। मूढ़ता तुम करोगे, लेकिन दोष संसार का है। तो फिर स्वभावत: इस तर्क की निष्पत्ति यह होती है कि आनंदित होना है, तो सांसर का त्याग करो, मूढ़ता का त्याग मत करो। क्योंकि हमने मूढ़ता को दोषी कभी नहीं ठहराया। सांसर को छोड़ने से क्या होगा। जहां भी जाओगे मूढ़ता, तो तुम्हारे साथ रहेगी। जो करोगे उसमें मूढ़ता ही होगी।

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