जीवन में कामयाबी के लिए इन बातों को हमेशा रखें ध्यान में

जिसे सहारों की ज़रुरत पड़ती हो, वो दुर्बल हुआ, नासमझ हुआ और जो नासमझ है, वो अपने लिए सहारे भी सारे गड़बड़ चुनेगा। तो ये तो दो तरफ़ा चोट पड़ गई न। पहली बात तो ये कि तुम्हें किसी के सहारे की ज़रुरत पड़ी . . . बल्कि बहुतों के सहारे की ज़रुरत पड़ी– ये पहली गड़बड़ और दूसरी गड़बड़ ये कि तुमने ग़लत लोगों का सहारा ले लिया। पहली बात तो ये कि तुमने भीख मांगी – बुरी बात, और दूसरी ग़लत बात ये कि तुमने भिखारियों से भीख मांगी। मिलेगा भी तो क्या? तुम तो दोतरफ़ा चोट खा रहे हो।

पहली बात तो ये कि हमें किसी का सहारा लेना पड़ता है, और दूसरी बात ये कि हम ऐसों का सहारा ले रहे हैं जो हमसे भी गए-गुज़रे हैं। तो कौन-सा सहारा मिल जाएगा, भई? तो इसीलिए तुम्हें दो चरणों में अपनी स्थिति से बाहर आना पड़ेगा। दो चरण कौन-से हैं, समझना।

पहला चरण :- सही सहारा पकड़ो।
दूसरा चरण :- सहारा अगर सही पकड़ा होगा, तो फ़िर किसी भी सहारे की ज़रुरत नहीं पड़ेगी।

उचित सहारा ढ़ूढ़ों
पहला कदम वहीं से तो रखोगे न जहां खड़े हो। और यही तुमने अपनी हालत बना रखी है कि तुम्हें सहारों की ज़रुरत पड़ती है। अपनी नज़र में तो तुम ऐसी ही हो। तुम कहते हो, “मैं वो हूं जो सहारा मांगता है।” ठीक, तुम वो हो जो सहारा मांगता है, तो इतना तो करो कि कम-से-कम सही सहारा ढ़ूढ़ों अपने लिए। मैं तुम्हें नहीं सुझा सकता कि तुम एक झटके में ही सारे सहारों को ठुकरा दो, उन्हें हटा दो – क्योंकि ये तुमसे हो नहीं पाएगा।

तो पहला चरण है– विवेक। जिनसे सहारा ले रहे हो, गौर से देखो कि वो सहारा देने लायक भी हैं, या तुम्हारे ही जैसे, या तुमसे भी बदतर हैं – उचित सहारा ढ़ूढ़ों।

उचित सहारा कौन-सा है? उचित सहारा वो होता है, जो धीरे-धीरे तुम्हें ऐसा बना दे कि तुम्हें फिर किसी सहारे की आवश्यकता न रहे।

सहारा लत न बने
अनुचित, गड़बड़, सहारा वो होता है जो लत बन जाए। सिगरेट भी एक सहारा ही होती है। लत बन जाती है। तमाम प्रकार के रिश्ते, मनोरंजन, ये भी एक सहारा ही होते हैं। ये लत बन जाते हैं। और ये लत ऐसे बनते हैं कि पहले पांच सिगरेट से सहारा मिल जाता था, अब पचास चाहिए, रोज़ाना।

सच्चे सहारे की पहचान
झूठे सहारों की यही पहचान है – वो तुम्हें और पंगु, और दुर्बल कर देते हैं। वो तुम्हारे लिए और आवश्यक कर देते हैं कि तुम सहारे पर ही आश्रित रहो। और सच्चे सहारे की पहचान ये है कि वो तुम्हें सम्भालता है, और धीरे-धीरे अपने आप को अनावश्यक बना देता है। वो तुम्हें कभी अपनी लत नहीं लगने देता। हालांक‍ि तुम यही चाहोगे कि तुम उसे भी पकड़ लो, क्योंकि सहारा तो मीठी चीज़ होता है न। ज़िम्मेदारी से बचाता है वो तुमको। तो अपनी ओर से तुम यही चाहोगे कि जो सच्चा सहारा हो, उसको भी पकड़ ही लो। और सच्चे सहारे का गुण यही है–तुम जितना भी चाहो, वो तुम्हारा अहित नहीं होने देगा। और तुम्हारा अहित इसी में होता है कि–तुम्हें सहारे की लत लग गई। शुरुआत करनी है विवेक से। थोड़ी नज़र पैनी करो। थोड़ी ईमानदारी से पूछो अपने आप से, “मैं जिनके पास जाता हूं मदद के लिए, वो इस लायक भी हैं कि मुझे मदद दे पाएंगे?”

आचार्य प्रशांत