दूसरे दिन सुबह उन जूतों को लेकर विद्यासागर नवाब के महल के आगे पहुंच गए। वहां जूते की नीलामी के लिए आवाज लगानी शुरू कर दी। देखते ही देखते नवाब के जागीरदार, कचहरी के कर्मचारी, उधर से गुजरने वाले राहगीर इकट्ठा हो गए। यह नवाब का जूता है, जानकर बोली लगाने वालों की संख्या बढ़ती गई। इस तरह दोपहर हो गई। अंत में एक व्यक्ति ने एक हजार रुपये में नवाब के जूते खरीद लिए। विद्यासागर खुश थे, क्योंकि उस समय के हिसाब से एक हजार रुपये कोई मामूली रकम नहीं थी। वह संतुष्ट मन से अपने ठिकाने पर लौट गए।
जब यह बात नवाब को पता चली तो उसने विद्यासागर को बुलावा भेजा। बातचीत में उसे यह अहसास हो गया कि ईश्वरचंद विद्यासागर ज्ञानी व्यक्ति हैं और उनका लक्ष्य बहुत ऊंचा है। उसे अपने किए पर पछतावा तो था ही, मगर उससे उबरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। आखिर उसने कोलकाता विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए अलग से एक हजार रुपये दान किए और अपने पूर्व के व्यवहार पर खेद भी जताया।
संकलन : अभिजीत गुप्ता