नवरात्र : शक्ति के अनेक रूपों के पीछे के शिवत्व का उत्सव

हाल ही में नवरात्र का शुभारंभ हुआ है। भारतीय परंपरा में इन दिनों को नौ शक्तियों की आराधना में समर्पित किया जाता है। धूमधाम के इस पर्व में शक्ति के विभिन्न रूपों को भजने का आनंद तब गहराता है जब इस पर्व का महत्व भी ध्यान रहे। पहली बात तो यह है कि नवरात्र के नौ दिनों को नौ मत मानो। नौ का आंकड़ा सांकेतिक है। नौ मतलब कोई एक नहीं, कोई दो नहीं, कोई तीन भी नहीं होता है, नौ का मतलब है बहुत सारे। शिव की शक्ति जितने भी अनंत रूपों में प्रकट होती है। ब्रह्मचारिणी, महागौरी, शांत और क्षमा करने वाली हैं। वहीं चंद्रघंटा, स्कंदमाता और कात्यायनी संहार करने वाली हैं। सृजन भी कर सकती हैं और विनाश भी कर सकती हैं इन सब तरह के कर्म शिव की अर्थात सत्य की शक्ति के द्वारा संभव है। फिर सवाल उठता है कि जब सब तरह के कर्म संभव हैं तो फिर कौन-सा कर्म किया जाना चाहिए?

वो कर्म किया जाए जिसके केंद्र में शिव बैठे हों! जब तक मनुष्य के कर्म के केंद्र में शिव बैठे हैं तब तक वह जो भी कर्म करेगा, वह शुभ और सम्यक ही होगा। नवरात्र के पर्व हमें बताते हैं कि परवाह मत करो कि कर्म का रूप, रंग, नाम, आकार दुनिया ने क्या रखा है, कैसा रखा है। शक्ति महागौरी के रूप में मनुष्य के सामने आए तो उसे लगेगा ममतामयी मां आ गईं और सत्य अगर काली के रूप में सामने आए तो मनुष्य थरथरा जाएगा और वध के डर से भयभीत होता रहेगा। इसी तरह यही रंग रूप सम्यक कर्म का है। सही कर्म कभी दाएं की ओर जाता है तो कभी बाएं की ओर, कभी जन्म देता है तो कभी मृत्यु भी देता है, कभी सीधा चलता है तो कभी उड़ चलता है। इसलिए कभी परवाह ही मत करो कि कर्म कैसा चल रहा है, कर्म की परवाह तो वो करते हैं जो कर्ममुख से गहरे देखना जानते ही नहीं। मनुष्य को देखना चाहिए कि कर्म के पीछे कर्ता कौन है, शक्ति के पीछे जो असली कर्ता बैठे हैं उनका नाम है- शिव।

मनुष्य को बस यह देखना चाहिए कि उसका काम, विचार और पूरा जीवन ही शिवत्व के केंद्र से आ रहा है या नहीं! अस्तित्व में और जीवन में जितनी विविधताएं संभव हो सकती हैं, सबका प्रतीक है नवरात्र। कोई विविधता बुरी नहीं है, कोई विविधता अच्छी नहीं है। उसी तरह जीवन में भी कोई विशेष कर्म पाप नहीं कहला सकता और कोई विशेष कर्म पुण्य नहीं कहला सकता है। सही-गलत का, अच्छे-बुरे का, पाप-पुण्य का निर्धारण बस एक बात करती है कि कर्म शिव से निकला है या नहीं, कर्म सच्चाई से निकला है या नहीं। मनुष्य को यह भी जानना चाहिए कि उसका कर्म, जीवन अगर सच्चाई से नहीं उद्भूत होगा, तो फिर वह कहाँ से संचालित हो रहा होगा? सत्य से नहीं चल रहा होगा, तो अवश्य ही झूठ से चल रहा होगा, और झूठ मतलब क्या? डर, बेचैनी, मोह, भय, ईर्ष्या और भ्रम।

बस यही देखना नवरात्र का सही संदेश है कि जीवन किस आधार पर जीवन व्यतीत हो रहा है या नहीं। कर्म नहीं, बाहरी बात नहीं, रंग रूप नहीं जीवन किस आधार पर गुजर रहा है यह जानना आवश्यक है। अब अगर मनुष्य शिव के आधार पर जी रहा हो तो सत्य के आधार पर जी रहा है नहीं तो भ्रम, मोह और अंधकार में जी रहा होगा। इसलिए जब हम नवरात्र मनाएं तो देवियों की उपासना करते समय यह लगातार याद रखें कि शक्ति और कुछ नहीं, शिव का ही साकार रुप है और शिव के साकार रुप अनंत हो सकते हैं। यह सब रूप प्यारे हैं जबतक वह शिव के हैं। शिव का है तो भीषण से भीषण और भयानक से भयानक रूप भी प्यारा है, पूज्यनीय है, पवित्र है और अगर शिव का नहीं है तो सुंदर से सुंदर, मोहक से मोहक, आकर्षक से आकर्षक रुप भी त्यागने योग्य है। इसलिए रूप पर नहीं जाना है क्योंकि रूप अनंत हो सकते हैं। केंद्र पर जाना है, मध्य पर जाकर देखना है। केंद्र अगर ठीक है तो सब रूप पूज्यनीय हैं। सभी रुपों का उत्सव मनाना ही नवरात्र का मूल संदेश है।

आचार्य प्रशांत/आध्यात्मिक वक्ता