उन्हीं दिनों सियालदाह में एक कंपनी के जमीन खरीदने, भवन बनाने के बावजूद उसमें वांछित प्रयोगशाला स्थापित न कर पाने की एक खबर पर उनका ध्यान गया। उस भवन में मदर को भूखे बच्चों और भीख मांगने वाले लोगों का हल नजर आया। इस काम के लिए जगह और भवन दोनों उन्हें सहजता से दान में मिल गया। उन्होंने उसका नाम प्रेमदान रख दिया। भवन मिलते ही उन्होंने घोषणा कर दी कि नारियल की खोल जमा करने वाले बच्चों को डबल रोटी, बिस्कुट और दूध दिया जाएगा। इसके बाद भीख मांगने और पॉकेटमारी करने वाले बच्चे अपने पेट की आग बुझाने के लिए सड़क के किनारे फेंके गए नारियल के छिलकों का ढेर लगाने लगे।
इस परियोजना से कलकत्ता को नारियल के छिलकों की गंदगी से निजात मिली और बच्चों को भोजन मिला। अब पॉकेटमारी के मामलों में भी कमी आ गई। इधर प्रेमदान में नारियल की खोलों से रस्सी, थैला और दरी बनने लगी। इस प्रकार प्रेमदान, लावारिस बच्चों, अपंगों, वृद्धों और लाचार लोगों की पनाह स्थली बन गया। वह स्थान रोजगार, उत्पादन और सेवा का एक ऐसा केंद्र बनकर उभरा जो आज भी प्रेम और दान की सच्ची कहानी कह रहा है।– संकलन : हरिप्रसाद राय