योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि का एक सूत्र है, जो पहली नजर में एकदम पहेली सा लगता है। यह सूत्र है—
‘वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।’॥ १/५॥
इसका आशय है- मन की वृत्तियां पांच हैं। वे क्लेश का स्रोत भी हो सकती हैं और अक्लेश का भी। यह सूत्र एक बार में ठीक-ठीक समझ में नहीं आता कि मन की पांचों वृत्तियां किस तरह और क्यों अपना रूप बदल लेती हैं? कैसे वे क्लेश यानि की दुःख, पीड़ा की जन्मदात्री बन जाती हैं और कैसे वे हमें अक्लेश अर्थात् गैर दुःख या पीड़ा विहीन अवस्था में ले जाती हैं। ‘जिन खोजा तिन पाइया’ के साथ ‘गहरे पानी पैठि’ की शर्त जुड़ी हुई है। इस शर्त को पूरा करके ही महर्षि का मंतव्य जाना जा सकता है।
लेकिन इस गहरे पानी में पैठने की शुरुआत कहीं किनारे से ही करनी होगी और यह किनारा है शरीर, जिससे हम सब सुपरिचित हैं। यह परिचय इतना प्रगाढ़ हो चला है कि हममें से कइयों ने यह मान लिया है कि वे शरीर से भिन्न और कुछ हैं ही नहीं। इस दृश्यमान शरीर के मुख्य अवयव भी पांच हैं, जिन्हें पंच कर्मेन्द्रियां भी कहते हैं। इस शरीर से ही जुड़ा एक पांच का समूह और भी है, जिसे पंच ज्ञानेन्द्रियां कहा गया है। इन्हीं पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हमारी अन्तश्चेतना बाह्य जगत् से संबंध स्थापित करती है और उसकी अनुभूतियों का आस्वादन प्राप्त करती है। बाह्य जगत् एक सा होने पर भी इसकी अनुभूति का रस और आस्वादन का सुख हर एक का अपना निजी होता है।
यह निजीपन मन और उसकी वृत्तियों के ऊपर निर्भर है। ये वृत्तियां भी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों की ही भांति पांच हैं। जहां तक मन की बात है, तो पं. श्रीराम शर्मा आचार्य कहा करते थे कि मन शरीर से बहुत अलग नहीं है। यह शरीर से काफी कुछ जुड़ा और चिपटा है। शरीर से मन का जुड़ाव इस कदर है कि इसे यदि शरीर का सूक्ष्म हिस्सा कहा जाय तो कोई गलत बात न होगी। यही कारण है कि शरीर के सुखों-दुःखों से यह सामान्य अवस्था में बुरी तरह प्रभावित होता है। यह भी एक तरह से शरीर ही है, परन्तु योग साधना के बिना इसका अलग अस्तित्व अनुभव नहीं हो पाता। हालांकि योग साधना करने वाले इस सच्चाई को बड़ी आसानी से जान लेते हैं कि दृश्य शरीर यदि स्थूल शरीर है, तो अपनी शक्तियों एवं संभावनाओं के साथ मन सूक्ष्म शरीर है। इसका विकास इस तथ्य पर निर्भर करता है कि मन और उसकी वृत्तियों का किस तरह से उपयोग किया गया।
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यदि बात दुरुपयोग तक सीमित रही है, मानसिक शक्तियां केवल इन्द्रिय-भोगों में खपती रही हैं, केवल क्षुद्र स्वार्थ के साधन जुटाए जाते रहे हैं, खोखले अहंकार की प्रतिष्ठा को ही जीवन का सार सर्वस्व समझा गया है, तो फिर मन की पांचों वृत्तियां जीवन में क्लेश का स्रोत साबित होने लगती हैं। यदि बात इसके उलट है, दिशा मन के सदुपयोग की है, मन को योग साधना में लीन किया गया है, तो मन की यही पांचों वृत्तियां अक्लेश का स्रोत सिद्ध होती हैं। मन की पञ्चवृत्तियां जिंदगी में क्लेश की बाढ़ किस तरह लाती हैं। इसका अनुभव हममें से प्रायः सभी को है। परंतु इनका अक्लेश के स्रोत के रूप में सिद्ध होना परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्यजी के द्वारा बताए गए जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्रों से ही संभव है।
पूज्य आचार्य जी कहा करते थे कि वृत्तियों का खेल समझ में न आए, तो सब कुछ किया-धरा बेकार चला जाता है। सारा योग-जप व्यर्थ हो जाता है। तपस्या, साधना रावण, कुंभकर्ण, हिरण्यकश्यपु एवं हिरण्याक्ष ने भी कम नहीं की थी। इनकी घोर तपस्या के किस्सों से पुराणों के पन्ने भरे पड़े हैं। पुराण कथाएं कहती हैं कि इनकी तपस्या से मजबूर होकर स्वयं विधाता इन्हें वरदान देने के लिए विवश हुए, परन्तु वृत्तियों के शोधन के अभाव में समस्त तप की परिणति अन्ततः क्लेश का ही स्रोत साबित हुई। अपनी तमाम उम्र ये वासनाओं की अतृप्ति की आग में जलते-झुलसते रहे। इन्हें जो कुछ भी मिला, इन्होंने जो भी अर्जित किया, उसने इनकी अतृप्ति की पीड़ा को और अधिक चरम तक पहुंचा दिया।
इसके विपरीत उदाहरण भी हैं। संत कबीर और महात्मा रैदास के पास साधारण जीवन यापन के साधन भी मुश्किल से थे। बड़ी मुश्किल से इनकी गुजर-बसर चलती थी। इनके जीवन का ज्यादातर भाग कपड़ा बुनने और जूता गांठने में चला जाता था। इनमें से किसी ने अद्भुत एवं रोमांचकारी तपस्या भी नहीं की; परन्तु एक काम अपनी हर श्वास के साथ किया। आने-जाने वाली हर श्वास के साथ मन और उसकी वृत्तियों के शोधन में लगे रहे। अपनी प्रगाढ़ भगवद्भक्ति से अपनी प्रत्येक मानसिक वृत्ति को परिष्कृत कर डाला। इसकी परिणति भी इनके जीवन में अति सुखद हुई। सभी पांचों वृत्तियां इनके जीवन में अक्लेश का, आनन्द का स्रोत बन गयीं। वृत्तियों की निर्मलता की इसी अनुभूति को पाकर महात्मा कबीर गा उठे थे-‘कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर। पाछे-पाछे हरि फिरैं कहत कबीर-कबीर॥’
डॉ. प्रणव पण्ड्या/गायत्री तीर्थ, हरिद्वार