दोनों आगे बढ़े। आगे बढ़ई काठ काटकर विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बना रहे थे, और आगे बढ़े तो उन्होंने धनुष बनाने वालों को देखा। वे सरकंडा आग में तपाते हैं, उसे सीधा करते हैं और फिर बाण बनाते हैं। अब पंडित ने फिर सारिपुत्त से वही सवाल पूछा कि क्या इस अचेतन वस्तु को, जैसा चाहे, वैसा स्वरूप दिया जा सकता है? सारिपुत्त ने उत्तर दिया, ‘हां।’ पंडित सोचने लगा, ‘अगर इतनी अचेतन वस्तुओं को कोशिश करके जैसा चाहे वैसा स्वरूप दिया जा सकता है तो फिर अपने चित्त को जिधर चाहें, उधर क्यों नहीं ले जाया जा सकता?’
यह सोचना था कि पंडित के अंत:चक्षु खुल गए। उसने सारिपुत्त से आज्ञा ली और बौद्ध विहार में आकर साधना में लीन हो गया। शाम को विहार में धमचर्या हुई, जिसका विषय खुद पंडित था। महात्मा बुद्ध बोले, ‘जब कोई व्यक्ति पूरी तन्मयता से ध्यान और धर्म का अनुपालन करता है तो पूरी कायनात उसकी रक्षा करती है। जब पंडित साधना कर रहा था तो मैंने भी बाहर खड़े होकर उसकी पहरेदारी की। किसान नहर से जल लेते हुए, धनुष बनाने वाले बाण को सीधा करते हुए और बढ़ई लकड़ी काटकर वस्तुएं बनाते हुए जो एकाग्रता पाते हैं, उसी एकाग्रता को पाकर पंडित जैसे लोग आत्मसंयम से अर्हत्व प्राप्त करते हैं।’
संकलन : भारती जोशी