मन जैसा होगा, तन भी वैसा होगा

मानव मन निर्विवाद रूप से एक ऐसी प्रमुख शक्ति है जिसकी सहायता से व्यक्ति असाध्य से असाध्य रोगों से मुक्ति पा सकता है। अध्यात्म के अनुसार सभी रोगों का मूल कारण या बीज मन में ही रहता है, शरीर तो केवल मन का प्रतिबिंब है। शरीर पर जो लक्षण प्रकट होते हैं उसका कारण मन में ही स्थित होता है। स्वास्थ्य सुख एवं रोगों के विनाश के लिए शरीर के साथ मन की एकरूपता आवश्यक है। प्रसिद्ध दृष्टांत अनुसार, एक बार गंभीर रूप से बीमार एक व्यक्ति को किसी ने बताया कि दूसरे गांव में एक वैद्य हैं, जिनकी दवाई से व्यक्ति शीघ्र स्वस्थ हो जाता है। यह सुनकर व्यक्ति वैद्य जी को मिलने पहुंचा, उस समय वैद्य जी अपने खेत में खेती-बाड़ी का कार्य कर रहे थे। बीमार व्यक्ति उनके पास गया और अपनी बीमारी बताई। वैद्य जी के पास उस समय लिखने के लिए कुछ नहीं था, इसलिए उन्होंने खेत में पड़ी एक ईंट उठाई और उस पर कोयले से दवाई का नाम लिखकर बीमार व्यक्ति को देकर कहा, ‘यह दवाई बाजार से ले लेना और हर दिन इसे पानी में घोलकर पी लेना।’ मंदबुद्धि होने के कारण बीमार व्यक्ति वैद्यजी की बातें ठीक से समझ नहीं पाया। कुछ महीने बाद वह बीमार व्यक्ति फिर से वैद्य जी के पास गया और बोला, ‘वैद्य जी! आपने जो औषधि दी है वह बहुत अच्छी है, उसकी वजह से मैं आधा ठीक हो गया हूं। थोड़ी सी औषधि और दे दीजिए।’

वैद्य जी ने कहा, ‘मैंने तो तुम्हें दवाई का नाम लिखकर सब समझाया था।’ तब व्यक्ति ने कहा, ‘हां वैद्य जी, ईंट तो मेरे घर के आस-पास भी थी लेकिन उस पर आपने जो लिखा था वह लिख दीजिए।’ वैद्यजी ने जब उससे पूरी बात पूछी तो उसने बताया कि, ‘आपने जो ईंट दी थी उसे मैं पानी में घोलकर पी रहा हूं, और मुझे आराम है। ईंट पर लिखा हुआ आपका मंत्र काम कर रहा है।’ वैद्य जी आश्चर्यचकित हुए लेकिन उन्होंने उस व्यक्ति को सच्चाई बताना ठीक नहीं समझा क्योंकि वह ईंट उस व्यक्ति के लिए दवाई से बेहतर काम कर रही थी। वैद्य जी ने एक और दूसरी ईंट लीं और कोयले से उस पर उसी दवाई का नाम लिखकर उसे दे दिया। कुछ माह बाद वह व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो गया। वैद्य और उसकी दवा पर बिना किसी शंका के सौ प्रतिशत यकीन ने ही उस व्यक्ति का असाध्य रोग छूमंतर कर दिया।

तन-मन: दोनों स्तर पर उपचार आवश्यक

व्यक्ति के विश्वास, भावना एवं विचार से उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। मन ही रोग और आरोग्य का जनक है, अधिकांशतः रोग का मूल कारण रोगी की मनोदशा ही होती है। तन बीमार है तो उसका इलाज संभव है परंतु मन के बीमार होने पर उसका खामियाजा पूरे व्यक्तित्व को चुकाना पड़ता है। तन एवं मन दोनों का इतना गहरा संबंध है कि एक के अभाव में दूसरे का पूर्ण स्वस्थ रहना कठिन ही नहीं असंभव है।

तन-मन की एकरूपता

दृश्य संसार में प्रकट होने से पहले हर चीज अदृश्य अथवा मानसिक संसार में प्रकट होती है। रोग पहले मन में उत्पन्न होता है, फिर तन में इसलिए अनादिकाल से मन को स्वस्थ रखने के लिए पूजा, पाठ, प्रार्थना, दान, पुण्य कर्मों को करने का विधान है। जीवन शक्ति के विकास के लिए शरीर को भोजन और मन को भयमुक्त सकारात्मक चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। जब तन और मन दोनों का उपचार एक साथ होता है तो व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन प्राप्त करता है। जीवन तथा स्वास्थ्य को हर प्रकार से संतुलित एवं पूर्ण बनाने के लिए शारीरिक एवं मानसिक एकरूपता अनिवार्य है।

ज्योतिषाचार्य आशुतोष वार्ष्णेय ग्रह नक्षत्रम् प्रयागराज