मां गंगा की गोद में डुबकियों का मेला

पंडित केवल आनंद जोशी

भारत में स्नान महज एक क्रिया नहीं है, इसके साथ जुड़ा है शुद्धि का भाव, हर दिन एक नई शुरूआत का संकल्प। जब करोड़ों लोग एक साथ गंगा में स्नान करने के लिए इकट्ठा हों, तो इसका महत्व करोड़ों गुना बढ़ जाता है। कुंभ एक महास्नान पर्व है, इस पूरी धरती पर एक साथ इतने लोग एक जगह नहीं एकत्रित होते। यह कितना विशाल होता है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संगम तट पर नहाने के लिए जुटे श्रद्धालुओं के समूह को अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता है। इस कुंभ में 6 प्रमुख स्नान दिवस हैं। ग्रह-नक्षत्रों का अद्भुत संयोग इन्हें विशेष बना देता है। इन छह में से भी तीन दिन अधिक शुभ माने गए हैं। यह हैं मकर संक्रांति (14 जनवरी), मौनी अमावस्या (10 फरवरी), और बसंत पंचमी (15 फरवरी)। इस दिन किए गए स्नान को शाही स्नान की संज्ञा दी गई है। आइए जानते हैं कि कौन से हैं ये 6 स्नान दिवस और क्या है इनकी विशेषता:

मकर संक्रांति : जितने प्रदेश-उतने नाम: 14 जनवरी के दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते है। दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरूआत इसी दिन से होती है। वहां यह पर्व थई पोंगल के नाम से जाना जाता है। सिंधी लोग इस पर्व को तिरमौरी कहते है। उत्तर भारत में यह पर्व मकर संक्रांति के नाम से और गुजरात में उत्तरायण नाम से जाना जाता है।

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मकर संक्रांति से जुडी मान्यताएं: पुराणों के अनुसार, इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनि के घर आते हैं। शनि को मकर राशि का स्वामी माना जाता है। किंवदंती है कि सूर्य और शनि के बीच संबंध बहुत मधुर नहीं थे लेकिन सूर्य ने अपने पुत्र के घर आने के लिए वर्ष में एक दिन तय किया। मकर संक्रांति के दिन सूर्य शनि के घर यानि मकर राशि में आते हैं और एक महीने तक रहते हैं। इस तरह से यह पर्व पिता और पुत्र के बीच संबंधों की महत्ता पर जोर देता है।
माना जाता है कि देवतों के दिनों की गिनती इसी दिन से शुरू होती है। सूर्य जब दक्षिणायण में रहते हैं, तो उस अवधि को देवताओं की रात व उत्तरायण के 6 माह को दिन कहा जाता है। देवताओं की एक दिन व एक रात मनुष्य के छह महीनों के बराबर होते हैं।
यह भी कहा जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का वध कर उनके आतंक को खत्म किया और उनके सिरों को मंदराचल पर्वत के नीचे दबा दिया। इसलिए इस दिन को नकारात्मकता की समाप्ति और एक नवीन और न्यायपूर्ण शुरूआत के रूप में भी देखा जाता है।
एक दूसरी मान्यता के मुताबिक, महाराजा भगीरथ युगों की तपस्या के बाद गंगा जी को धरती पर लाने में सफल हुए। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी उनके पीछे-पीछे चलते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुंची जहां भगीरथ के पूर्वजों और महाराजा सागर के 60 हजार पुत्रों की राख दबी हुई थी। इस तरह गंगा जल से भगीरथ ने उन सभी का तर्पण किया। इसके बाद गंगा जी आगे चलकर गंगासागर में समुद्र से मिल जाती हैं। हर साल मकर संक्रांति को गंगासागर पर भी विशाल मेला लगता है। हजारों श्रद्धालु वहां एकत्रित होकर जल में डुबकी लगाते हें और अपने पूर्वजों का तर्पण करते हैं।

एक अन्य कथा यह भी है कि महाभारत युद्ध के बाद घायल हुए गंगा पुत्र भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये मकर संक्रांति अर्थात 14 जनवरी का दिन ही चुना था।

मकर संक्रांति नव जीवन का प्रतीक: मकर संक्रांति के दिन से मौसम में बदलाव आना शुरू होता है। यही कारण है कि रातें छोटी व दिन बड़े होने लगते है। सूर्य के उतरी गोलार्ध की ओर बढ़ने के कारण गर्मी के मौसम की शुरूआत होती है। सूर्य के प्रकाश में गर्मी और तपन बढ़ने लगती है। नतीजतन जीवों में चेतना और कामकाज करने की शक्ति का विकास होता है। जो जीव-जन्तु अभी तक अपने घरों, बिलों या गुफाओं में सर्दी के कारण छुपे हुए थे, वे बाहर निकलने लगते है। प्रकृति में रंग और खुशबू बिखरने लगती है।

मकर संक्रांति पर तिल की विशेषता: मकर संक्रांति के दिन खाई जाने वाली वस्तुओं में जी भर कर तिलों का प्रयोग किया जाता है। इस दिन तिल का सेवन और साथ ही दान करना शुभ माना जाता है। तिल का उबटन, तिल के तेल का प्रयोग, तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल मिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल की वस्तुओ का सेवन व दान, इनमें से कुछ भी करना व्यक्ति के पापों में कमी और पुण्यों में बढ़ोत्तरी करता है।
तिल अर्थात शनि की कारक वस्तु व गुड़ अर्थात सूर्य की कारक वस्तु। दोनों की वस्तुओं का दान अपार शुभ माना जाता है। इन वस्तुओं को एक दूसरे को देने से माधुर्य बढ़ता है, स्नेह व सहयोग के भाव में बरकत होती है। मकर संक्रांति जैसे त्यौहार समाज को एक-दूसरे से बांधे रखते हैं।
पौष पूर्णिमा: माघ स्नान का शुभारंभ
पौष माह की पूर्णिमा का भी बड़ा महत्व हैं। यह पौष माह का आखिरी दिन है और इस दिन के स्नान के साथ एक महीने तक चलने वाला माघ स्नान प्रारंभ हो जाता है। इस दिन देश भर में श्रद्धालु देश भर में गंगा और यमुना में स्नान करने जाते हैं और सूर्य को जल चढ़ाते हैं। शिव मंदिर में स्थित शिवलिंग पर भी जल चढ़ाकर साधना की जाती है। धर्म स्थलों पर रामायण, भगवद् गीता जैसे धर्म शास्त्रों का पठन-पाठन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं।

पौष पूर्णिमा को शाकुंभरी जयंती भी

देवी शाकुंभरी मां दुर्गा के अवतार के रूप में पूजित हैं। ऐसी कथा है कि एक बार धरती पर भयानक सूखा पड़ा और 100 वर्षों तक बारिश नहीं हुई। इस कारण से सभी पेड़-पौधे मरने लगे। संतों ने देवी भगवती से रक्षा के लिए प्रार्थना प्रारंभ की। मां भगवती ने भक्तों की पुकार सुनी और धरती पर पौष पूर्णिमा को देवी शाकुंभरी के रूप में अवतार लिया। उन्होंने सभी को आशिर्वाद दिया जिसके फलस्वरूप बारिश प्रारंभ हुई और पूरे विश्व में नवजीवन का संचार हुआ। इसलिए पौष पूर्णिमा को शाकुंभरी पूर्णिमा या शाकुंभरी जयंती भी कहा जाता है।

मौनी अमावस्या: आत्मिक शुद्घि का पर्व
मौनी अमावस्या के महत्व का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 2001 में हुए पिछले कुंभ में मौनी अमावस्या को 315 करोड़ श्रद्धालुओं ने स्नान किया था। धर्मशास्त्रों के मुताबिक, इसी दिन सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और मनु ऋषि धरती पर अवतरित हुए थे। इस दिन सूर्य और चंद्र मकर राशि में स्थान ग्रहण करते हैं। इस पवित्र दिन को मौन व्रत रखकर कर सम्मान दिया जाता है। मौन व्रत वाणी सहित अपनी इंद्रियों पर संयम रखते हुए भगवान नारायण की उपासना और सेवा करने का प्रतीक है। शास्त्रों के अनुसार मौन रहना आत्मिक शुद्धि करने का सबसे आसान तरीका है।
मौनी अमावस्या को गंगा के पवित्र जल में स्नान करने के बाद श्रद्धालु भगवान विष्णु का ध्यान और जप करते हैं। श्रद्धालुओं से अपेक्षा की जाती है कि वे काम, क्रोध, मद, मोह, लालच जैसी सांसारिक तृष्णा में ना फंसकर संतों और जरूरतमंद लोगों को दान देंगे और मौन व्रत का पालन करेंगे। ऐसा करने से हम अपने कार्मिक बंधनों से मुक्ति पाकर परम ज्ञान को प्राप्त होते हैं जिससे यह लोक और परलोक दोनों ही प्राप्त होते हैं।

वसंत पंचमी: सरस्वती पूजा
हिन्दू कैलेंडर के अनुसार हर वर्ष माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसंत पंचमी के रुप में मनाया जाता है। पतझड़ के बाद वसंत का आगमन होता है। इस दिन भगवान विष्णु, कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा की जाती है। इस दिन ब्रह्माण्ड के रचयिता ब्रह्मा जी ने सरस्वती जी की रचना की थी। इसलिए इस दिन देवी सरस्वती की पूजा भी होती है।
सरस्वती को विद्या की देवी माना जाता है इसलिए वसंत पंचमी को विद्यार्थियों के लिए विद्या आरम्भ करने का मुहूर्त बहुत ही श्रेष्ठ मुहूर्त होता है। जिन व्यक्तियों को गृह प्रवेश के लिए कोई मुहूर्त ना मिल रहा हो वह इस दिन गृह प्रवेश कर सकते हैं। कोई व्यक्ति अपने नए व्यवसाय को आरम्भ करने के लिए शुभ मुहूर्त को तलाश रहा हो तब वह वसंत पंचमी के दिन अपना नया व्यवसाय आरम्भ
कर सकता है। अन्य कोई भी कार्य जिनके लिए किसी को कोई उपयुक्त मुहूर्त ना मिल रहा हो तब वह वसंत पंचमी के दिन वह कार्य कर सकता है।

वसंत पंचमी की कथा
एक किंवदंती के अनुसार ब्रह्मा जी एक दिन अपनी बनाई हुई सृष्टि को देखने के लिए धरती पर भ्रमण करने के लिए आए। ब्रह्मा जी को अपनी बनाई सृष्टि में कुछ कमी का अहसास हो रहा था। उन्हें पशु-पक्षी, मनुष्य, पेड़-पौधे सभी चुप दिखाई दे रहे थे। ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से जल लेकर कमल के पुष्पों और धरती पर छिड़का। जल छिड़कने के बाद श्वेत वस्त्र धारण किए हुए एक देवी प्रकट हुई। इस देवी के चार हाथ थे। एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में कमल, तीसरे हाथ में माला तथा चौथे हाथ में पुस्तक थी। ब्रह्मा जी ने देवी को वरदान दिया कि तुम सभी प्राणियों के कंठ में निवास करोगी। सभी के अंदर चेतना भरोगी, जिस भी प्राणी में तुम्हारा वास होगा वह अपनी विद्वता के बल पर समाज में पूज्यनीय होगा। ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती को वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारे द्वारा समाज का कल्याण होगा इसलिए समाज में रहने वाले लोग तुम्हारा पूजन करेगें। इस प्रकार से प्राचीन काल से वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा की जाती है।
वसंत पंचमी के दिन स्कूलों में भी देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। कुछ जगह घरों में भी सरस्वती की मूर्ति की स्थापना की जाती है और वसंत पंचमी के दिन उनकी पूजा की जाती है। उसके बाद अगले दिन मूर्ति को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।

माघी पूर्णिमा: कार्तिक पूर्णिमा जितनी पवित्र
माघ मास की पूर्णिमा माघी पूर्णिमा कहलाती है। स्नान, ध्यान, दान, पुण्य के लिहाज से इसका उतना ही महत्व है जितना कार्तिक पूर्णिमा का होता है। हिंदु धर्मदृष्टि में माघ 4 पवित्र महीनों में से एक महीना है। इसलिए प्रत्येक वर्ष श्रद्धालु इस दिन गंगा में स्नान करने जरूर जाते हैं, अगर गंगाजी दूर हों तो किसी स्वच्छ जलाशय, नदी, तलाब, झरने इत्यादि में स्नान किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार इस दिन जल में सूर्य के उगने से पहले देवताओं का तेज विद्यमान रहता है, यह तेज पाप का शमन करने वाला और पुण्य को बढ़ाने वाला होता है। इसलिए इस दिन सूर्योदय से पहले जब आकाश में तारे मौजूद हों तो नदी में स्नान करने से पापों का नाश होता है।
माघी पूर्णिमा के दिन अन्न दान और वस्त्र दान का बड़ा महत्व है, ऐसा शास्त्रों का मानना है। इस दिन गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की पूजा करें, उसके बाद सामर्थ्य अनुसार अन्नदान करें और भूखों को भरपेट भोजन कराएं, ब्राह्मणों और पुरोहितों को श्रद्धा से दान दें और उनका आशीर्वाद लें, इसके बाद स्वयं भोजन करना चाहिए। इस दिन शैवमत को मानने वाले लोग भगवान शंकर की पूजा करते हैं।

महाशिवरात्रि: सरल उपायों से प्रसन्न होते हैं महादेव
भगवान शिव को शीघ्र प्रसन्न होने वाला देव कहा गया है। शिवरात्रि पर्व चतुर्दशी तिथि, फाल्गुन मास, कृष्ण पक्ष को हर साल मनाया जाता है। चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। इसलिए ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम शुभफलदायी कहा गया है। वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि कहा गया है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं और ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यन्त शुभ कहा गया है । महाशिवरात्रि पर सरल उपाय करने से ही इच्छित सुख की प्राप्ति होती है।
एक दूसरा महत्व यह है कि ज्योतिषीय गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। जिस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इससे कष्टों का सामना करना पड़ता है।
चूंकि चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है। इसलिए चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का आश्रय लिया जाता है। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। इसलिए अक्सर ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं।

शिव व्रत प्रदोष काल में प्रदोषकाल (सूर्यास्त से रात्रि होने के मध्य की अवधि) सरल शब्दों में सूर्योस्त होने के बाद के 2 घंटे 24 मिनट कि अवधि प्रदोष काल कहलाती है। प्रदोष काल के समय में भगवान शिव प्रसन्न मुद्रा में नृत्य करते है। प्रदोषकाल में ही शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। यही कारण है, कि प्रदोषकाल में शिव पूजा या शिवरात्रि में शिव जागरण करना विशेष कल्याणकारी कहा गया है। सभी 12 ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव भी प्रदोष काल महाशिवरात्रि तिथि में ही हुआ था।

बेल, धतूरे, से प्रसन्न हो जाते हैं महाशिव इस दिन शिवभक्त, शिव मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाते, पूजन करते, उपवास करते तथा रात्रि को जागरण करते हैं। इस दिन शिव की शादी हुई थी इसलिए रात्रि में शिवजी की बारात निकाली जाती है। वास्तव में शिवरात्रि का परम पर्व स्वयं परमपिता परमात्मा के सृष्टि पर अवतरित होने की याद दिलाता है। इस व्रत की विशेषता है कि जातिभेद से परे सभी उम्र के स्त्री-पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध इस व्रत को कर सकते हैं। इस व्रत के विधान में सवेरे स्नानादि से निवृत्त होकर उपवास रखा जाता है।

विधि: इस दिन मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर ‘शिवलिंग’ पर चढ़ाया जाता है। अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसे पूजने का विधान है। रात्रि को जागरण करके शिवपुराण का पाठ सुनना हरेक व्रती का धर्म माना गया है। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।