वातावरण को उमंग और उल्‍लास से भर देने का पर्व है नवरात्र

डॉ प्रणव पंड्या
वर्ष में दो अवसर नवरात्रि के ऐसे हैं जिन्हें आध्यात्मिक पर्व कहा जाता है और जिनमें साधना, तपश्चर्या की प्रमुखता रहती है। आश्विन और चैत्र के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक नौ-नौ दिन के यह पर्व आते हैं। इनमें यूं तो कई लोग अपने व्यक्तिगत व्रत-उपवास, जप-अनुष्ठान, पूजा-पत्री भी करते हैं किन्तु प्रचलन उन्हें सामूहिक रूप में मनाने का ही है।

पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा, राजस्थान में गनगौर, गुजरात में गरबा, मध्य प्रदेश में रामलीला, झांकी आदि, असम, त्रिपुरा में रासलीला आदि धार्मिक समारोह इन दिनों होते हैं। पूजा का स्वरूप जो भी हो, पर उसमें आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता के परिपोषण करने वाले सभी तत्वों का समन्वय है। उन्हें उभार कर जनमानस को आन्तरिक उत्कृष्टता और सामाजिक सुव्यवस्था के लिए प्रोत्साहित, प्रशिक्षित किया जाता है।

नवरात्रि ऋतु-संध्या है। दिन और रात्रि के मिलन की संधिवेला में की गई साधना उपासना कहलाती है और उस समय ईश्वर की आराधना करने का अधिक महत्‍व माना जाता है, ठीक इसी प्रकार ऋतु-संध्याओं का समय नवरात्र कहलाता है। हमारे देश में छह ऋतुएं होती हैं, पर उनमें मुख्य सर्दी और गर्मी होती है। इन दोनों का मिलन काल आश्विन और चैत्र मास में जिन दिनों आता है, वह नौ-नौ दिन के समय को नवरात्रि कहलाते हैं। उन दिनों शरीरों, मनों और प्रकृति के विभिन्न घटकों में विशेष रूप से उल्लास उभरा रहता है। वातावरण में विशिष्ठता व्याप्त रहती है। शरीर अपने अंदर दबे हुए रोगों को निकाल बाहर करने के लिए प्रयास करता है। अस्तु, कई तरह के रोग इन दिनों बढ़ जाते हैं। कुशल चिकित्सक इस अवसर को शरीर शोधन के लिए विशेष उपयोगी मानते हैं और कल्प चिकित्सा के अनुरूप वमन, विरेचन, स्नेहन, खेदन, नस्य आदि उपचार करके रोगों की जड़ काटते हैं। दुग्ध कल्प, छाछ कल्प आदि इन दिनों अधिक सफल होते हैं। प्राचीन काल में वृद्धों का यौवन वापस लौटाने की कायाकल्प चिकित्सा प्रचलित थी, उसके लिए भी उपयुक्त अवसर यही माना जाता था।

प्रातःकाल हर किसी के मन में उत्साह रहता है। पक्षी उसको व्यक्त करने के लिए चहचहाते-फुदकते-उड़ते देखे जाते हैं। अन्य प्राणियों में उसी प्रकार की उत्साह भरी हलचलें उस समय देखी जा सकती हैं। आश्विन नवरात्रि में शरद ऋतु रहती है। चैत्र नवरात्रि में वसंत होता है। आरंभ तो माघ सुदी पंचमी से सरस्वती के जन्म दिन से होता है, पर चलता चैत्र भर है। वसंत में प्रकृति की शोभा देखते ही बनती है। वृक्ष वनस्पतियां उन्हीं दिनों नवीन पल्लव धारण करते और फूलते हैं। इसके उपरान्त वे कुछ ही समय में फलों से लद जाते हैं। वसंत ऋतु में उभरा हुआ प्रकृति का उल्लास अपना प्रभाव समूचे वातावरण पर डालता है।

जीवधारियों के मन में एक विशेष प्रकार की मादकता से भर जाते हैं। उनमें प्रणय उत्साह उत्पन्न होता है। अधिकांश प्राणियों के गर्भ धारण का ऋतु काल चैत्र के वसंत या आश्विन के शरद में होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी नवरात्र का विशेष महत्‍व है। धर्मग्रन्थों में इन दिनों आत्मा के ऋतुमति होने का आलंकारिक संकेत किया गया है और कहा गया है इन दिनों वह अपने प्रियतम परमात्मा से मिलने के लिए विशेष रूप से आतुर होती है। इन दिनों किया गया ब्रह्म-संबंध आत्मा को ब्रह्म बीज के रूप में उपलब्ध होता है। उस गर्भ-धारा में उसे श्रेय संतान की प्राप्ति होती है। इस श्रेय का प्रसव होने पर उसे भौतिक जीवन से सिद्धि और आत्मिक जीवन से ऋद्धि की संपदाओं और विभूतियों का समग्र वैभव प्राप्त होता है। प्रायः सायं के समय दिन-रात्रि के मिलन काल में जिस प्रकार दैनिक संध्या वंदन किया जाता है, उसी प्रकार वार्षिक संध्या भी दो बार आश्विन और चैत्र में की जाती है। उस समय में की गई तप, साधना, पूजा, आराधना अन्य समयों की अपेक्षा अधिक फलवती होती है।

नवरात्रि को एक उपासना पर्व के रूप में किसी न किसी तरह हिन्दू धर्मानुयायी मनाते हैं। रोजे-रमजान की तरह यह अवधि भी उपवास काल है। यह नौ दिन का व्रत-उपवास सार्वजनिक प्राकृतिक चिकित्सा उपचार के समतुल्य माना जा सकता है। इसमें प्रायश्चित के मल निष्कासन और पवित्रता के अवधारण दोनों ही भाव सम्मिश्रित हैं।