कार्यकारिणी समिति ने निर्णय किया कि कॉलेज के संचालक पद के लिए किसी अच्छे शिक्षाविद को नियुक्त करेंगे। वेतनमान तय हुआ ₹75 रुपये महीना। संस्थान के कई प्रबुद्ध लोगों ने कहा कि इतने कम वेतन पर शायद ही कोई अच्छा व्यक्ति मिले। हुआ भी ऐसा ही। इस पद के लिए कोई आवेदन नहीं आया। कार्यसमिति के लोगों में निराशा फैलने लगी। लेकिन अचानक एक दिन एक ऐसे व्यक्ति का आवेदनपत्र कॉलेज में आया, जिसे देखकर कार्यसमिति के सदस्यों को बहुत खुशी हुई। समिति के सदस्यों को विश्वास नहीं हो रहा था कि इतना बड़ा शिक्षाशास्त्री इस नए कॉलेज के संचालक पद के लिए आवेदन करेगा।
आवेदन करने वाले व्यक्ति थे, बड़ौदा कॉलेज के अध्यक्ष अरविंद घोष। उन्हें उस समय ₹700 रुपये मासिक वेतन मिलता था और इसके अलावा अन्य सुविधाएं भी थीं। समिति के एक सदस्य ने संकोच करते हुए उनसे पूछा, ‘इतना अधिक वेतन और सुविधाओं के बावजूद आप इतने कम वेतन पर इस कॉलेज का संचालक बनना क्यों स्वीकार कर रहे हैं?’ अरविंद घोष ने कहा, ‘उद्देश्य बड़ा हो तो सुख-सुविधाओं का महत्व कम हो जाता है।’ अरविंद घोष के नेतृत्व में बंगाल नैशनल कॉलेज से शिक्षा प्राप्त कर अनेक चोटी के देशभक्त और राजनेता निकले। इससे स्वतंत्रता आंदोलन मजबूत हुआ। – संकलन : दीनदयाल मुरारका