सदगुरु श्री स्वामी आनन्द जीदुर्गा, हमारी अंतर्चेतना की उस परम क्षमता का नाम है, जो हमारी कर्मजनित दुर्गति को आमूलचूल नष्ट करने की ऊर्जा से भरपूर है। यह पर्व शक्ति को बाहर पंडालों में स्थापित करने से अधिक अपनी बिखरी हुए ऊर्जा को स्वयं में समेटने, सहेजने और संचरण का है। नवरात्रि के अवसर पर देवी की प्रतिमा की स्थापना पूर्णत: वैज्ञानिक है जो जगत में सामाजिक सुधारों की पताका लिए किसी मिशन के मानिंद नजर आती है।यूं तो दुर्गापूजा के वर्तमान उत्सव स्वरूप के सूत्र बंग भूमि में छिपे नजर आते हैं पर इसका विस्तार संपूर्ण दक्षिण एशिया में दृष्टिगोचर होता है। ग्रंथों में दुर्भाग्य के उन्मूलन हेतु प्राचीन काल में अहोरात्रि के नाम से प्रचलित आज की नवरात्रि में शक्ति की वैज्ञानिक पूजा का उद्धरण प्राप्त होता है, जिसमें पूजन के लिए विशिष्ट प्रतिमा के निर्माण का उल्लेख मिलता है। जिसके समक्ष मंत्रजाप और सप्तशती का सस्वर पाठ की स्वर लहरियां कर्ण से मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर, अपार मानसिक बल और आत्मविश्वास का कारक बनते हैं और हमारे विराट आभामण्डल का निर्माण करते हैं।शारदातिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि जैसे ग्रंथ और कुछ पारम्परिक मान्यताएं इसकी पुष्टि और संस्तुति करती हैं। बांग्ला मान्यताओं के अनुसार गोबर, गोमूत्र, लकड़ी व जूट के ढांचे, धान के छिलके, सिंदूर, विशेष वनस्पतियां, पवित्र नदियों की मिट्टी और जल के साथ निषिद्धो पाली के रज के समावेश से निर्मित शक्ति की प्रतिमा और यंत्रों की विधि पूर्वक उपासना को लौकिक और पारलौकिक उत्थान की ऊर्जा से सराबोर माना गया है। निषिद्धो पाली वेश्याओं के घर या क्षेत्र को कहा जाता है।कलकत्ते यानी कोलकाता का कुमरटली इलाके में भारत की सर्वाधिक देवी प्रतिमा का निर्माण होता है। वहां निषिद्धो पाली के रज के रूप में सोनागाछी की मिट्टी का इस्तेमाल होता है। सोनागाछी का इलाका कोलकाता में देह व्यापार का गढ़ माना जाता है। तंत्र-शास्त्र में निषिद्धो पाली के रज के सूत्र काम और कामना से जुड़े हैं। तंत्र यानी प्राचीन विज्ञान। तन का आनंद या दैहिक सुख तांत्रिय उपासना के मुख्य उद्देश्य हैं। आध्यात्म में काम चक्र को ही कामना का आधार माना जाता है।यदि काम से जुड़े विकारों को दुरुस्त कर लिया जाए, और ऊर्जा प्रबंधन ठीक कर लिया जाए तो भौतिक कामनाओं की पूर्ति का मार्ग सहज हो जाता है। आध्यात्म के इन सूत्रों को जानकर व्यक्ति चाहे तो अपनी ऊर्जा काम चक्र पर खर्च कर यौन आनन्द प्राप्त कर ले, चाहे तो उसी चक्र को सक्रिय कर अपनी समस्त कामनाओं की पूर्ति कर लें। दैवीय प्रतिमा में निषिद्धो पाली की मिट्टी के प्रयोग की परंपरा स्वयं में सामाजिक सुधार के सूत्र भी सहेजे दिखाई देती है। यह परंपरा पुरुषों की भूल की सजा भुगतती स्त्री के उत्थान और सम्मान की प्रक्रिया का हिस्सा भी प्रतीत होती है।
महालया पर देवी की अनगढ़ प्रतिमा को नेत्र प्रदान किए जाते हैं। यह प्रक्रिया चक्षु-दान कहलाती है और यहीं से पूजा के पर्व का आगाज माना जाता है। कहते हैं कि देवी अपने साथ गणपति, कार्तिकेय को लेकर अपने महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के विराट स्वरूप में दस दिवस के लिए अपने पति को कैलाश पर छोड़कर अपने पीहर आती हैं।
इस दौरान ग्रहों की चाल से देवी की सवारी का पता लगाया जाता है क्योंकि शक्ति के वाहन स्वयं में आने वाले दिनों के संकेत समेटे होते हैं। मान्यता है कि यदि वाहन गज हुआ तो यह सुख, आनंद, वैभव के साथ उत्तम खेती और श्रेष्ठ उत्पादन का प्रतीक होगा। अश्व हुआ तो कहीं दुर्भिक्ष यानी जल की कमी से अकाल और कहीं-कहीं जल की अधिकता से बाढ़ का खतरा होगा। नाव पर अवतरण हुआ तो श्रेष्ठ पैदावार और जल की समृद्धि होगी और यदि झूले पर अवतरण हुआ तो यह शारीरिक विकारों का संकेत है।
भारतवर्ष में अधिकतर प्रतिपदा से ही देवी की स्थापना हो जाती है। लेकिन बंगाल में महाषष्ठी की संध्या में कालीबोधन के साथ देवी के श्रीमुख से आवरण हटने के साथ देवी का प्राकट्य होता है। महाअष्टमी का आगाज होम और संधिपूजा से होता है। कुल 108 प्रज्वलित दीपों के समक्ष, निर्जल मुख से मंत्रोच्चार के साथ संधिक्षण में देवी की प्राण प्रतिष्ठा होती है। तब जैसे लोगों की सांसे थम जाती हैं, ठहर जाती हैं। कहते हैं कि युद्ध की कठिन घड़ी में श्रीराम ने भी नवरात्रि में इसी प्रकार देवी की विशिष्ट प्रतिमा का निर्माण कर शक्ति का कालीबोधन आह्वान किया था, जिसके पश्चात् विजयश्री ने उनका चरण चुंबन किया।