अनिश्चित काल के लिए बंद होने जा रहा शिरडी साईं मंदिर, जानें साईं मंदिर के बारे में सबकुछ

साईं ने तो कुछ नहीं बताया

मंदिर के ट्रस्‍ट से जुड़े लोगों का कहना है कि साईं बाबा ने कभी अपनी जाति, जन्‍म स्‍थान और परिवार के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। इसलिए पाथरी को साईं बाबा की जन्‍म‍भूमि बताकर उसका विकास करना सही नहीं है। विवाद इतना बढ़ गया है कि पहली बार साईं ट्रस्‍ट ने मंदिर रविवार से अनिश्चितकाल के लिए बंद करने का निर्णय लिया है। आइए हम आपको बताते हैं साईं बाबा और उनके शिरडी स्थित मंदिर से जुड़ी ये खास बातें।

साईं बाबा के जन्म स्थान को लेकर गहराया विवाद, पहली बार शिरडी में होने जा रहा ऐसा

मंदिर का इतिहास

कहा जाता है कि शिरडी का साईं मंदिर बाबा का ही समाधि स्‍थल है। उन्‍होंने अपने आखिरी दिनों में यहीं पर समाधि ली थी और यहीं पर चिरनिद्रा में लीन हो गए थे। उनकी मृत्‍यु 15 अक्‍टूबर 1918 में उसी स्‍थान पर हुई थी, जहां आज शिरडी का साईं मंदिर है। कुछ लोग उनके हिंदू होने की बात करते हैं तो कुछ उन्‍हें मुसलमान मानते हैं। शायद यही वजह है कि उनके दरबार में दोनों ही समुदाय के लोग आकर सिर झुकाते हैं।

ऐसे शुरू हुआ मंदिर का निर्माण

साईं की भक्ति की ज्‍योत जलाए रखने के लिए उनके भक्‍तों द्वारा 1922 में इस मंदिर का निर्माण शुरू किया गया। माना जाता है कि वह 16 वर्ष की आयु में आए थे और मानव कल्‍याण के लिए यहीं आकर बस गए थे। सारा जीवन यहीं बिताया और अंत में यहीं पर समाधि ले ली। कुछ लोग उन्‍हें आध्‍यात्मिक गुरु मानकर उनके चमत्‍कारों के आगे सिर झुकाते हैं तो कुछ उन्‍हें फकीर बाबा की तरह याद करते हैं।

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जन्‍म के बारे में कहानी

साईं बाबा के जन्‍म और उनके माता-पिता के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है। परंतु फिर भी मान्‍यताओं के आधार पर उनका जन्‍म 28 सितंबर 1838 को माना जाता है। वह 16 वर्ष की आयु में महाराष्‍ट्र के अहमदनगर के शिरडी गांव में आ गए थे। उन्‍होंने यहां सबसे पहले नीम के एक पेड़ के नीचे अपना आसान लगाया। सर्दी-गर्मी की परवाह किए बिना वह कठोर तपस्‍या में लीन रहते थे। इतनी कम आयु में ऐसी तपस्‍या देखकर कुछ माताओं को उन पर दया आ गई और वे उनके लिए वहीं पर खाना लाने लगीं।

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अचानक हो गए गए गायब

एक दिन अचानक बिना किसी को बताए वह शिरडी से गायब हो गए और करीब एक साल बाद एक बारात के साथ वापस लौटे और फिर यहीं बस गए। उनकी वेशभूषा को देखकर कुछ लोग उन्‍हें मुस्लिम समझने लगे। उन्‍होंने एक जर्जर मंदिर को अपना ठिकाना बना लिया। वह भिक्षा मांगकर अपना जीवन व्‍यतीत करते थे। माना जाता है कि वहीं उन्‍होंने एक धूनी जलाई थी और उसकी राख वह अपने भक्‍तों को दिया करते थे। इस राख के चमत्‍कार से लोगों की भयानक से भयानक बीमारी सही हो जाती थी। देखते-देखते लोग उन्‍हें ईश्‍वर का अवतार मानने लगे और उनकी ख्‍याति फैलती गई।

मस्जिद का नाम रखा द्वारकामाई

जिस मस्जिद में रहते थे, उसका नाम उन्‍होंने द्वारकामाई रखा था। भक्‍त वहां आकर उनकी आरती करने लगे। वह किसी धर्म जाति में विश्‍वास नहीं करते थे और सदैव बोलते थे ‘सबका मालिक एक’। इसलिए उन्‍हें हिंदू-मस्लिम सद्भाव का प्रतीक माना जाता है। उनकी मृत्‍यु इसी गांव में लगभग 83 वर्ष की आयु में हुई थी।

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ऐसा हैं शिरडी का साईं मंदिर

यहां स्थित बाबा का मंदिर भोर में 4 बजे खुलता है और उसके बाद आरती, भजन और प्रसाद होता है। फिर प्रात: 5 बजकर 40 मिनट पर मंदिर श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया जाता है। दिन भर के दर्शन और पूजन के बाद रात को साढ़े 10 बजे मंदिर में अंतिम आरती की जाती है और मंदिर को बंद कर दिया जाता है।