अलौकिक सौंदर्य की धनी थी राज नर्तकी उपरंभा, एक भिक्षुक ने किया चमत्कार

राज नर्तकी उपरंभा अपने अलौकिक सौंदर्य के लिए दूर-दूर तक मशहूर थी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, राजकुमार उनका सामीप्य पाने को तरसते थे। एक दिन वह अपने महल से राजमार्ग की ओर देख रही थीं, तभी उसने वहां से गुजरते हुए एक युवा भिक्षुक को देखा। वह असाधारण रूपराशि का स्वामी था। उपरंभा उस पर मुग्ध हो गई। आवाज दी- भिक्षुक ठहरो। अनसुना कर भिक्षुक आगे बढता रहा। फिर आवाज दी, पर भिक्षुक रुका नहीं। कुछ ही पलों में वह उसके सामने थी। उपरंभा ने कहा, ‘मैं तुम्हारा सामीप्य और स्वामित्व चाहती हूं।’ उसने अपने कटाक्षों का सम्मोहन बाण चलाया- मैंने तुम्हें स्वीकार किया है, मेरे साथ जीवन के अप्रतिम आनंद का उपभोग करो।

भिक्षुक का संक्षिप्त उत्तर था- अभी नहीं। नर्तकी ने पूछा- फिर कब आओगे? ‘मैं उचित समय पर आऊंगा’, कहकर भिक्षुक आगे बढ़ गया। नर्तकी उसके चिंतन में खो गई, उसे लगा आज कोई बड़ी निधि हाथ से छूट गई। समय का चक्र बदला। नर्तकी को गलित कुष्ठ हो गया। शरीर पर घाव हो गए। वह सबकी घृणा का पात्र बन गई। राजाज्ञा से उसे नगर के बाहर आश्रयस्थली में भेज दिया गया। संयोग से भिक्षुक उपगुप्त उसी मार्ग से गुजर रहे थे। उसके क्रंदन की आवाज सुनकर वह सीधे उसके पास पहुंचे और अपने कमंडल के पवित्र जल से उसका उपचार शुरू किया।

नर्तकी ने पलकें खोलीं, तो भिक्षुक को पहचान लिया। धीमी आवाज में बोली- तुम अब आए हो, इस समय मैं तुम्हें क्या दे सकती हूं? भिक्षुक बोला- मैं ठीक समय पर आया हूं। उसके कुछ दिनों के उपचार से वह ठीक हो गई। भिक्षुक के चरणों में गिरकर बोली- तुम भिक्षुक के वेश में देवता हो। तुमने मेरी आत्मा को जगा दिया। भिक्षुक बोला- मेरी दृष्टि मात्र ऊपरी देह पर नहीं, मैं उसमें विराजित विदेही आत्मा का सत्कार करता हूं। हमें सीप का नहीं, मोती का सम्मान करना चाहिए।– संकलन : रमेश जैन