भिक्षुक का संक्षिप्त उत्तर था- अभी नहीं। नर्तकी ने पूछा- फिर कब आओगे? ‘मैं उचित समय पर आऊंगा’, कहकर भिक्षुक आगे बढ़ गया। नर्तकी उसके चिंतन में खो गई, उसे लगा आज कोई बड़ी निधि हाथ से छूट गई। समय का चक्र बदला। नर्तकी को गलित कुष्ठ हो गया। शरीर पर घाव हो गए। वह सबकी घृणा का पात्र बन गई। राजाज्ञा से उसे नगर के बाहर आश्रयस्थली में भेज दिया गया। संयोग से भिक्षुक उपगुप्त उसी मार्ग से गुजर रहे थे। उसके क्रंदन की आवाज सुनकर वह सीधे उसके पास पहुंचे और अपने कमंडल के पवित्र जल से उसका उपचार शुरू किया।
नर्तकी ने पलकें खोलीं, तो भिक्षुक को पहचान लिया। धीमी आवाज में बोली- तुम अब आए हो, इस समय मैं तुम्हें क्या दे सकती हूं? भिक्षुक बोला- मैं ठीक समय पर आया हूं। उसके कुछ दिनों के उपचार से वह ठीक हो गई। भिक्षुक के चरणों में गिरकर बोली- तुम भिक्षुक के वेश में देवता हो। तुमने मेरी आत्मा को जगा दिया। भिक्षुक बोला- मेरी दृष्टि मात्र ऊपरी देह पर नहीं, मैं उसमें विराजित विदेही आत्मा का सत्कार करता हूं। हमें सीप का नहीं, मोती का सम्मान करना चाहिए।– संकलन : रमेश जैन