आखिर नेहरूजी ने क्यों कहा कि भारत साहित्यकारों और आलोचकों का ऋणी है, जानें

नवंबर 1955 की बात है। सोवियत संघ के राष्ट्रपति ख्रुश्चेव और उनके मंत्री निकोलाई बुलगानिन भारत आए थे। संसद में उनके मैत्रीपूर्ण अभिभाषण की पूरे देश में चर्चा थी। उनके सम्मान में जगह-जगह समारोह आयोजित हो रहे थे। ऐसे ही एक समारोह में शामिल होने का निमंत्रण राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को भी मिला। वह समय से वहां पहुंच गए। स्वयंसेवकों ने उन्हें निश्चित स्थान पर बैठा दिया। आयोजन में बच्चों ने समवेत स्वर में ‘जननी तेरी जात सभी हम, जननी तेरी जय हो’ गीत गाया जिसने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।

अपनी ही रचना का लयबद्ध गान सुनकर मैथिलीशरण गुप्त भी भावविभोर हो गए। कार्यक्रम के बाद वह जानना चाह रहे थे कि इस गीत को लयबद्ध किसने किया। एक सज्जन ने उनसे कहा कि इसके लेखक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। सज्जन न तो मैथिलीशरण गुप्त को पहचानते थे और न ही गीत और संगीत के अंतर को। थोड़े प्रयास के बाद पता चला कि किसी बंगाली सज्जन ने इसे संगीत से संवारा है, जो वहां नहीं थे। गुप्त जी मन मसोस कर रह गए क्योंकि वह लय तैयार करने वाले का आभार व्यक्त करना चाहते थे। तभी एक सज्जन आए और बोले कि आपको पंडित जी ने अंदर बुलाया है।

अंदर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनका परिचय बुलगानिन और ख्रुश्चेव से कराया। परिचय में बताया गया कि बच्चों ने जो गीत प्रस्तुत किया है उसके रचयिता आप हैं। उन दोनों ने रूसी और हिंदी साहित्य के आदान प्रदान पर गुप्तजी से चर्चा की, फिर चाय पीने लगे। चाय गुप्तजी के सामने भी आई। इस अप्रत्याशित सम्मान से उपजी असहजता के कारण उनके हाथ से चाय का चम्मच छूटकर गिर गया। जब तक गुप्त जी चम्मच उठाते, नेहरू जी ने उठा लिया और दूसरा चम्मच देते हुए कहा, ‘देश साहित्यकारों और आलोचकों का ऋणी है।’– संकलन : हरिप्रसाद राय