संजिता सिंह।।
मैं कुंभ जा रही थी। बहुत एक्साइटमेंट था। हालांकि जब बताया गया कि मैं कुंभ मेला कवर करने जा रही हूं तो खुशी के साथ मिली-जुली घबराहट भी थी। जल्द ही अपनी खुशी और आने वाली कुंभ ट्रिप की खबर मेरे वॉट्सऐप और फेसबुक अपडेट्स के जरिए ई-संसार में जंगल की आग की तरह फैल गई। दोस्तों ने मुझे ‘लकी गर्ल’ का खिताब दिया। कुछ ने फरमाइश की कि ‘हमारे लिए ढेर सारे फोटो खींच कर लाना’। क्यों नहीं…
बहरहाल, मकर संक्रांति के एक दिन पहले मैं टैक्सी से अपने तीन सहयोगियों के साथ इलाहाबाद के लिए रवाना हुई। कुंभ मेला क्षेत्र में पहुंचने के बाद हमने अपने टेन्ट में अपना सामान रखा । एक अजीब सा अहसास था। कल सुबह ना जाने कैसा माहौल होगा। लग रहा था कि जल्दी दिन खत्म हो और मैं अगले दिन सुबह-सवेरे जागकर महास्नान की साक्षी बनूं। लोग कहते हैं, जीवन में ऐसे पल बारबार नहीं आते। अब जानती हूं सही कहते थे।
रात भर कुछ खास नींद नहीं आई। हां, थके हुए शरीर को कुछ राहत जरूर मिली। सुबह 3:30 पर हमने अपना टेन्ट छोड़ दिया और संगम की तरफ चल पड़े। रास्ते में हमें नागा साधुओं का सजा-धजा जुलूस दिखाई दिया। साधुओं ने अखाड़ों के वरीयता क्रम के मुताबिक स्नान किया।
कुंभ में चारों तरफ कड़क सुरक्षा बंदोबस्त था। पूरे रास्ते पुलिस के कुत्तों का दस्ता हमारे आगे-आगे चल रहा था। रास्ता फूलों से भरा था, हमसे पहले गुजरे अखाड़े के जुलूस में इन्हें न्यौछावर किया गया था। सड़क के दोनों किनारों पर फटॉग्रफर और रिपोर्टरों की भीड उमड़ रही थी।
हवा में ठंडक थी। लेकिन इस अद्भुत मॉर्निंग शो को देखने के लिए मैं संगम की तरफ बढ़ती गई। नागाओं की शाही सवारी के साथ हम संगम तट तक पहुंचे। रास्ते भर मैं नागा साधुओं को देखकर सोचती रही कि क्या इन्हें ठंड नहीं लगती। उनके लिए मेरा सिर श्रद्धा से झुक गया।
संगम तट पर एक दूसरी ही तरह का संगम दिखा। विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं, आस्थाओं का संगम। सभी पौ फटने से पहले संगम के उस झिलमिलाते जल में कूद रहे थे। यहां गंगा स्नान करने का मेरा यह पहला अनुभव था। हरिद्वार का शीशे जैसा साफ गंगाजल देखा था लेकिन सैकड़ों मील दूर यहां गंगाजल मटमैला था। मैं इसमें नहाने की हिम्मत कर पाऊंगी, खुद से सवाल पूछा। हालांकि इसका जवाब उन तमाम स्नानार्थियों से पाने की भी कोशिश की थी जो देश-विदेश से यहां गंगा तट पर जुटे थे। उन सभी ने कहा क्यों नहीं और मुस्कुराते हुए गंगा में छलांग लगाते गए।
लेकिन मेरी तर्कशील बुद्धि यह सब मानने को तैयार नहीं थी। कहीं मुझे ऐलर्जी या इन्फेक्शन हो गया तो… दिल ने पूछा, ‘तो क्या इतने पास आकर मैं कुंभ की डुबकी मिस कर जाऊंगी?’ आखिर दिल की जीत हुई। बोला, ‘जो होगा सो देखा जाएगा, बिना संगम के जल में उतरे कुंभ के जादू को महसूस नहीं किया जा सकता’। मन ही मन प्रार्थना की, भगवान बचाना मुझे और जल में घुस गई। बर्फ सा ठंडा पानी। दिमाग ने फिर कहा, ‘बाहर निकल’ लेकिन गंगा ने अपनी गोद से निकलने नहीं दिया। धीरे-धीरे संगम का बर्फीला जल गर्म, गुनगुना लगने लगा। दिल ने कहा, यह है मां की गोद। हम सभी खूब एक दूसरे पर जल उछाल-उछाल कर नहाए।
पूरा अनुभव आज भी मेरी आत्मा में पूर्ण सौंदर्य के साथ अंकित है। लेकिन फिर भी मन में एक सवाल उठता है। वह कौन सी ताकत थी जिसने मुझे संगम में स्नान करने को विवश कर दिया। बाकी जनता की तरह अपने पापों को धोने की आकांक्षा या फिर महाकुंभ के जज्बे को समझने की तीव्र इच्छा। बहरहाल, जो भी वजह रही हो, इतना तो मुझे भरोसा है कि उस सुबह जो कुछ मुझे महसूस हुआ उस अहसास को महसूस करने के लिए पूरी मानवता यों ही सदियों तक संगम में डुबकी लगाने आती रहेगी।