दूसरे जेबकतरे ने सेठ के कपड़ों में से रत्न और सोना काटकर निकाल लिया। उसे लेकर वह बाजार में गया और बेच आया। बेचने से उसे जो पैसे मिले, उससे उसने रात में एक से बढ़कर एक पकवान बनाए। वहीं दूसरा जेबकतरा सुधर चुका था, मगर उसके घर में पैसों की कमी थी। उस रात उसके घर में साधारण सा भोजन भी नहीं बन पाया। उसने रात भूखे रहकर काटी। सुबह हुई तो चोरी करने वाले जेबकतरे ने अपने मित्र का बहुत मजाक उड़ाया। वह बोला, ‘तुम तो खुद को बहुत महान समझते हो। अब कहां गई तुम्हारी सारी महानता? तुम अपने लिए भोजन का भी इंतजाम नहीं कर पाए।’
अब मित्र ने सोचा कि काम तो इसने गलत किया, पर अच्छे-अच्छे पकवान इसी ने खाए, जबकि मुझे भूखे रहना पड़ा। वह वापस शास्ता के पास जेतवन पहुंचा और उन्हें पूरी बात बताते हुए पूछा, ‘भंते, मैं उसकी तरह क्यों नहीं सोच पाता? वैसा सोचता तो शायद मैं भी आज सुखी होता।’ बुद्ध बोले, ‘तुम जैसे हो, वैसा खुद को स्वीकार किया- यही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। किसी और की तरह बनने की कोशिश करते रहोगे तो न अपनी तरह से जी पाओगे और न उसकी तरह बन पाओगे। जैसे हो वैसा ही खुद को स्वीकार करो, वहीं से उत्थान के द्वार खुलते हैं।’
संकलन : श्याम सुंदर