उनके पादरी पति फ्रेंक, एनी के स्वतंत्र विचारों की इज्जत नहीं करते थे और किसी भी तरह उन्हें अपने विश्वास के साथ जकड़कर रखना चाहते थे। एक दिन उनके पति ने उन्हें बुरी तरह आहत किया। उसी वक्त एनी फैसला ले लिया कि अब वह अपने जीवन का अंत कर देंगी। उन्होंने जहर की एक बोतल मंगाई, कमरा बंद किया। लेकिन वह जैसे ही बोतल अपने मुंह के पास ले गईं, तभी उन्हें लगा कि किसी ने पूछा कि क्या तुम कायर हो? कष्ट और मुसीबतों से डरकर अनमोल जिंदगी को खत्म कर दोगी? आत्म-समर्पण का पाठ सीखो और सत्य का रास्ता तलाश करो। बस इतने से एहसास के बाद उन्होंने खिड़की से जहर की बोतल बाहर फेंक दी, चुपचाप उठीं और अपने पति के घर से निकल गईं।
उन्हें तब लगा कि दुनिया ही मेरा देश और परोपकार मेरा धर्म है। वह भारत आईं। यहां आजादी के आंदोलन से जुड़ीं, बनारस हिंदू कॉलेज की स्थापना में सहयोग दिया और थियोसोफिकल सोसाइटी की प्रेसिडेंट भी बनीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सभापति रहते हुए अनेकों पदों को सुशोभित करते हुए वह भारत में ध्रुव तारे की तरह चमकीं। वह थीं डॉक्टर एनी बेसेंट। भारत को उन्होंने अपना लिया और भारतीयों ने उन्हें। वह आज भी हर भारतीय के दिल में निवास करती हैं। जब भी भारत के इतिहास की चर्चा होगी, उनका नाम बड़े एहतराम के साथ लिया जाएगा।– संकलन : नाइश हसन