तब प्रतिभाशाली बच्चों को छात्रवृत्ति मिलती थी। अध्यापक ने उस बच्चे को भी छात्रवृत्ति के लिए फॉर्म भरने के लिए कहा। लेकिन उसने यह सोचकर फॉर्म नहीं भरा कि वह फॉर्म भरेगा तो किसी गरीब बच्चे का हक मारा जाएगा। अगले दिन अध्यापक ने मेरिट के हिसाब से जब फॉर्म लगाए तो देखा कि उनकी कक्षा के सबसे होनहार विद्यार्थी का फॉर्म ही नहीं है। पूछे जाने पर उस छात्र ने वजह बताई। अध्यापक ने कहा कि गरीबी के साथ-साथ सर्वोच्च अंक भी छात्रवृत्ति का आधार होता है। खैर, बच्चे ने फॉर्म भर दिया।
उसकी छात्रवृत्ति का सिलसिला शुरू हुआ तो PHD तक चला। इंग्लैंड के लिवरपूल विश्वविद्यालय में PHD के लिए छात्रवृत्ति पाने वाला वह छात्र और कोई नहीं, बल्कि हरगोविंद खुराना थे। वहां छात्रवृत्ति इस शर्त पर मिली थी कि PHD के बाद वह सरकार को अपनी सेवा देंगे, पर वापस लौटे तो विभाजन में उनका परिवार पाकिस्तान से विस्थापित होकर दिल्ली आ गया था। उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बंगलौर, नैशनल बायोलॉजिकल इंस्टिट्यूट, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और दिल्ली विश्वविद्यालय सहित सभी जगहों पर आवेदन किए, लेकिन उन्हें ठुकरा दिया गया। मजबूर होकर उन्होंने इंग्लैंड का रुख किया। वहां टाड के साथ काम करते हुए वह कनाडा और फिर अमेरिका के एंजाइम रिसर्च इंस्टिट्यूट गए। यहीं काम करते हुए उन्हें शरीर और औषधि विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।– संकलन : हरिप्रसाद राय