उन्होंने अपने सचिव पीएम नायर से पूछा, क्या मुझे उन लोगों को दावत देनी चाहिए जो पहले ही खूब खाए-पिए हों? फिर सचिव से पता लगाने को कहा कि इफ्तार पार्टी के आयोजन में कुल कितना खर्चा आ जाएगा? पता चला कि लगभग 22 लाख रुपये खर्च होंगे। इस पर उन्होंने सचिव को निर्देश दिया कि इस पैसे से अनाथों को भोजन, वस्त्र और कंबल मुहैया करा दें। साथ ही यह भी कहा कि अनाथों का चयन राष्ट्रपति भवन की एक टीम करे। कलाम साहब अपने इस फैसले से बहुत खुश थे। उन्हें बाहर का नहीं, बल्कि भीतर का आनंद चाहिए था।
अपनी जीवनी में उन्होंने बताया है कि इस फैसले के बाद मुझे रात को अपने स्वर्गीय पिताजी का बहुत ख्याल आया। ऐसा लगा जैसे कि वे मेरे कानों में कह रहे हों, ‘जिंदगी के लुत्फ को मजहब, दुनियावी ऐशो-आराम को मुनाफा समझने से कयामत तयशुदा है।’ यानी अगर हम सबसे पहले इंसानियत के बारे में सोचें तो दिल को कहीं ज्यादा सुकून मिलेगा। पिता की यह बात वास्तव में इस लोक ही नहीं, बल्कि परलोक की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण थी। उनका आशय था कि वास्तव में संसार उस खेत की तरह है जहां इंसान परलोक के पुण्य की खेती करता है। इसके साथ ही वह आश्वस्त हुए कि उनका फैसला सही था।- संकलन : दाताराम चमोली