डॉ प्रणव पंड्या/शांतिकुंज, हरिद्वार
भगवान् कृष्ण का जीवन ऐसा है, जिसमें सभी आयाम समाहित हैं। उनके व्यक्तित्व और उनके जीवन दर्शन गीता को तो भिन्न-भिन्न मानकर नहीं चला जा सकता है। दोनों एक-दूसरे से गुंथे हुए हैं। प्रेरणा उभारने के लिए दोनों का ही उपयोग किया जाना आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन में समग्र संतुलन को रख दिया है। उन दिनों त्याग-वैराग्य की हवा जोरों से चल रही थी। ईश्वर भक्ति और आत्मकल्याण जैसे महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आमतौर से गृह-त्याग, एकान्तवास, संन्यास धारण, भिक्षाचरण, कायाकष्ट जैसे क्रिया-कलाप ही अपनाए जाने लगे थे।
उसी का प्रचलन परंपरा बन गया था। प्रतिभावान विभूतियां सांसारिक, सामाजिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके आत्मलाभ में लगी रहती थीं। फलतः सारा समाज दुर्बल और अस्त-व्यस्त होता चला जा रहा था। इस प्रवाह की दिशा बदले बिना न अध्यात्म का उद्देश्य पूरा होता था और न व्यक्ति का आत्म-कल्याण सम्भव था।
भगवान ने अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव जाति को यही संदेश दिया कि आत्म-कल्याण एवं ईश्वर प्राप्ति के लिए सर्वांग साधना कर्मयोग से ही हो सकती है। भावनाओं को निःस्वार्थ उदात्त परमार्थपरक बनाते हुए लोकमंगल के लिए किए गए सभी कर्म योगसाधना एवं तपश्चर्या हैं। उन्हें अपनाने से आत्म-कल्याण ही नहीं, लोकमंगल उद्देश्य भी पूरा होता है। इसलिए जप-तप तक सीमित न रहकर लोकहित के क्रियाकलापों द्वारा परम लक्ष्य को पाने का प्रयास करना चाहिए।
गीता में भगवान ने अर्जुन को अपने विराट रूप का दर्शन कराते हुए यह बताया कि यह प्रत्यक्ष विश्व ही मेरा साकार रूप है। संसार को सुंदर, सम्मुन्नत, सुविकसित और सुव्यवस्थित बनाने के लिए किए गए समस्त प्रयत्न ईश्वर आराधना के श्रेष्ठतम उपचार हैं। यह प्रतिपादन उस एकांगी मान्यता का प्रकारान्तर से खण्डन है, जिसमें अमुक नाम-रूप की अनुष्ठानपरक उपासना को जीवन लक्ष्य की पूर्ति का साधन माना जाता था और परमार्थ प्रेमी उसी में अपना सारा समय, श्रम एवं साधन नियोजित करते थे।
गीता में कर्म करने की एक उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक शैली को उभारा गया है। लक्ष्य ऊंचा रखते हुए भी, शक्ति भर प्रयत्न करते हुए भी सफलता पूर्णतया निश्चित नहीं रहती। परिस्थितियां भी अपना काम करती हैं एवं कई बार ऐसे परिणाम सामने आ जाते हैं जिनमें श्रेष्ठ प्रयास भी असफलता के निकट पर जा पहुंचते हैं। ऐसी घटनाओं से कर्मयोगी को आघात लग सकता है और वह उदास होकर अपना साहस एवं प्रयास गंवा सकता है। भगवान् ने इस स्थिति से बचने के लिए यह मनोवैज्ञानिक मोड़ दिया है कि श्रेष्ठ कर्म करने भर को संतोष, गौरव, उल्लास एवं श्रेय का केंद्र बिंदु मान लिया जाय। क्योंकि मनुष्य का अधिकार कर्म करने तक ही है परिणाम पर उसका कोई अधिकार नहीं है।
कर्मयोग दर्शन में सफलता की परिभाषा और सन्तोष का केंद्र बिंदु बदला गया है, ताकि अनाचारी लोगों द्वारा अनुचित मार्ग पर चलकर प्राप्त की गई सफलताओं की ओर किसी का भी जी न ललचाने लगे। अपने सत्प्रयत्नों का भौतिक परिणाम कुछ बढ़-चढ़कर न मिलने से किसी की हिम्मत टूटने न लगे। कर्मयोग का दर्शन उस मानसिक असंतुलन से बचाता है, जो शारीरिक रोगों से भी हजार गुना अधिक कष्टकर और हानिकारक सिद्ध होता है। घटनाक्रम किसी के हाथ में नहीं है। प्रिय और अप्रिय परिस्थितियां धूप-छांव की तरह आती हैं। मनुष्यों में भी सर्वथा सज्जनता मिलती कहां?
व्यक्तियों तथा घटनाओं द्वारा बार-बार ऐसे व्यवधान प्रस्तुत किए जाते रहते हैं, जो उद्वेग और आवेश उत्पन्न करें। क्रोध, चिंता, भय, निराशा तथा घृणा उत्पन्न करने वाले अवसर आये दिन सामने खड़े रहते हैं। उन्हें बदलने-सुधारने के लिए संतुलित मस्तिष्क रहने पर कुछ ठीक तरह सोचा और ठीक किया जा सकता है, पर मानसिक दुर्बलता के कारण घटनाक्रम ने पहले मस्तिष्क द्वारा उल्टा ही सोचा अथवा किया जाता है, फलस्वरूप विपत्ति और कई गुणी बढ़ जाती है। दूसरों द्वारा प्रस्तुत व्यवधान की अपेक्षा अपने असुंतलन की हानि अनेक गुणी होती है। यदि विवेक स्थिर रखा जा सके तो अपना संतुलन तो बनाया ही जा सकता है और संकट उतना ही सीमित बना रह सकता है, जिसके साथ विवेक बुद्धि से जूझा निपटा जा सके। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।