संकलन: हफीज किदवई
उनसे पहले जेल में अनशन करते हुए एक बौद्ध संन्यासी फुंगी विजय अपने प्राण दे चुके थे। रामरक्खा भी अनशन के दौरान प्राण दे चुके थे। लाहौर षड्यंत्र के क्रांतिकारी महावीर, रामकृष्ण, नामादास और मोहित मोहन भी प्राण दे चुके थे, मगर इनसे अलग एक जिंदगी थी, जो भूख-प्यास से दूर रोज मौत की ओर बढ़ रही थी। वह जिंदगी पहले भी तीन बार जेल में पूरे प्रशासन को घुटने के बल ला चुकी थी। उस नवयुवक की दीवानगी ऐसी थी कि अंग्रेज भी हमेशा बेचैन रहते। उस पर महात्मा गांधी का जबरदस्त असर था, जो जेल में अपने साथी क्रांतिकारियों के हक के लिए अंत तक जूझा था।
भगत सिंह के साथ जब वह जेल में था, तब पूरे देश इन्हें देख रहा था। भगत सिंह ने कहा कि हमारे साथ राजनीतिक कैदियों सा व्यवहार किया जाए। अंग्रेजों ने बात नहीं मानी। फिर आजादी के इन परवानों ने जेल में अनशन शुरू किया। खबर सुनकर गणेश शंकर विद्यार्थी जेल आए। उनका कहा मानकर कई क्रांतिकारियों ने अनशन तोड़ा, लेकिन वे अनशन पर कायम रहे। मोतीलाल नेहरू ने ब्रिटिश हुकूमत को कड़ा संदेश दिया, लेकिन हुकूमत नहीं मानी। विचलित होकर जवाहर लाल नेहरू ने भी जेल आकर उन्हें समझाया, लेकिन उनकी जिद के आगे सब फेल था।
सोलह-सोलह सिपाहियों ने मिलकर उनकी नाक में खाना डालना चाहा, मगर वे तो चट्टान थे। आखिरकार लंबे अनशन के बाद यतींद्रनाथ बोस जेल में ही शहीद हो गए। शहादत के बाद उनके पर्थिव शरीर को सुभाष चंद्र बोस बंगाल ले जाना चाहते थे तो बंबई वाले उन्हें अपने यहां ले जाना चाहते थे। फिर पंजाब से भी आवाज उठी कि यतींद्र तो उसके हैं। और फिर पूरा देश यतींद्रनाथ का यह संदेश कि सब मिलकर, एक साथ जुड़कर, अपने हक को छीन लो, जिसे तुमसे छीन लिया गया है, दोहराते हुए अंग्रेजों को ललकारने लगा।