इस तरह खुल गया ज्योतिषीजी का भेद, ऐसे बिना पूछे बता देते थे भविष्य

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य/शांतिकुंज, हरिद्वार

मुख से बिना कहे पूछे जाने वाले प्रश्नों को मूक प्रश्न कहते हैं। अनेकों ज्योतिषी मूक प्रश्न बताते हैं हमें ऐसे ज्योतिषियों से कितनी ही बार काम पड़ा है। उनके भेदों को जानने में भी हमें असाधारण परिश्रम तथा काफी समय लगाना पड़ा है।

एक बार आगरा में एक ज्योतिषीजी आये बेलनगंज की धर्मशाला में ठहरे, शहर भर में मुनादी तथा इश्तहारों द्वारा सूचना कराई गई कि ज्योतिषीजी मूक प्रश्नों का उत्तर देते हैं हम भी पहुंचे। उनका तरीका यह था कि जो आदमी उनके पास जाय वह एक कागज पर अपना प्रश्न लिखकर अपने पास चुपचाप रखले, ज्योतिषीजी उस प्रश्न को भी बताते थे और उसका उत्तर भी देते थे। फीस हर प्रश्न की 2 रुपये थी। सवेरे से शाम तक पचास साठ प्रश्न पूछने वाले उनके पास पहुंचते थे। आसानी से सौ रुपये रोज की आमदनी हो जाती थी। प्रश्नों को प्रायः ठीक ही बता दिया जाता था।

बारीकी से देखने पर मालूम हुआ कि इस विद्या का रहस्य उस कापी में था जो वहां आमतौर से खुली हुई पड़ी रहती थी पाठक उसी के कागजों पर अपने प्रश्न लिखते थे और कागज फाड़ कर अपनी जेब में रख लेते थे। इस कापी में जो कोरे कागज थे वे चतुरता पूर्वक रासायनिक ढंग से बनाये गए थे। कागजों की पीठ पर बढ़िया साबुन घिस दिया गया था। पेन्सिल से लिखने पर कार्बन पेपर के रंग की भांति कागजों की पीठ पर घिसा हुआ साबुन नीचे वाले कागज पर लग जाता था। कार्बन के लिखे हुए अक्षर नीले रंग के होने के कारण साफ दिखाई पड़ते हैं पर साबुन के अक्षर सफेद और हल्के होने के कारण दीखते नहीं पर उन्हें विशेष उपाय से पढ़ा जा सकता है।

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उस नकल आए हुए कागज पर राख, गुलाल, रामरज, गेरु का चूर्ण या कोई अन्य ऐसी ही बारीक पिसी हुई रंगीन चीज डाली जाय तो वे साबुन के स्थान चिपक जाती है और अक्षर स्पष्ट रूप से पढ़े जा सकते हैं। या उस कागज को पानी में डुबो दिया जाय तो भी वे साबुन के अक्षर दिखाई दे सकते है। यही उन ज्योतिषीजी की विद्या थी इसी के बल पर वे कमाते खाते थे। थोड़े से परीक्षण से ही उनके इस रहस्य को मैंने जांच लिया।

जबलपुर के ज्योतिषी का कारनामा

एक अन्य ऐसे ही ज्योतिषी से जबलपुर में भेंट हुई। उनका रहस्य यह था कि वह सादा कागज के टुकड़े काट कर रख देते थे, वहीं पेन्सिल भी पड़ी रहती थीं। कागज पर पेन्सिल से लिखते समय कोई कड़ी चीज नीचे रखने की आवश्यकता पड़ती है, इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए वहां कितनी ही मोटी-मोटी जिल्ददार किताबें पड़ी थीं। जिल्दों के पुट्ठे के ऊपर एक हल्का कागज चढ़ाया हुआ था। उस कागज और पुट्ठे के बीच में कार्बन पेपर तथा सफेद कागज लगा रहता था। उस पुट्ठेदार किताब के ऊपर कागज रखकर जो कुछ लिखा जाता था उसकी नकल बीच के सफेद कागज पर कार्बन पेपर द्वारा हो जाती है। ज्योतिषीजी का सेवक उन पुस्तकों को वहां से ले जाता था और नकल वाला कागज निकाल कर पुस्तकों को वहीं रख जाता था, इस नकल को देखकर ज्योतिषीजी मूक प्रश्न बताते थे।

मुंबई के ज्योतिषी का कमाल

एक ज्योतिषी ने अपना अलग ही नया तरीका निकाला था, उससे मुंबई में भेंट हुई। प्रश्नकर्त्ता उनके सामने जाकर कुर्सी पर बैठता था, वह अपनी मेज के दराज में से एक स्लेट और पेन्सिल निकालते थे, प्रश्नकर्त्ता की ओर देख-देख कर वह जल्दी-जल्दी सिलेट पर कुछ लिखते थे और पूरी सिलेट लिख जाने पर उसे दराज में फिर रख देता था। अब प्रश्नकर्त्ता से बात-चीत होती आप कहां से पधारे हैं? क्या काम है? आदि सारी बातें पूछते, जब वार्तालाप पूरा हो चुकता तो मेज के दराज में से सिलेट निकालकर प्रश्नकर्त्ता के हाथ में देते और पढ़ने को कहते। उस सिलेट में वही सब बातें लिखी होती जो प्रश्नकर्त्ता ने बताई थी। ज्योतिषी कहता आपके आते ही बिना आपसे एक शब्द पूछे सारी बातें जान ली थी और इस सिलेट पर लिख कर रख दी थी। प्रश्नकर्त्ता बेचारा आश्चर्य में पड़ जाता और ज्योतिषीजी की विद्या से प्रभावित होकर उन्हें शक्तिभर भेंट दक्षिणा देता।

पता चलाने पर ज्ञात हुआ कि ज्योतिषीजी की बड़ी मेज के दोनों ओर जमीन तक जाने-आने वाले बड़े-बड़े दराज थे, उसमें नीचे एक आदमी बैठा रहता था। ज्योतिषी आरंभ में जो कुछ लिखते वह व्यर्थ की कलम घिसावट थी। वैसी ही दूसरी स्लेट लिए एक आदमी दराज में बैठा रहता था और जो वार्तालाप दोनों में होता था उसे सुनकर तथ्य की बातें लिखता जाता था। वही स्लेट अन्त में प्रश्नकर्त्ता को दिखाई जाती । वह बेचारा समझता कि मेरी बातों से पूर्व ही यह स्लेट लिखी गई थी।

इस प्रकार के एक नहीं अनेकों ज्योतिषी, तेजी मंदी बताने वाले, भविष्यवक्ता देखे उनमें से मुझे किसी के पास भी कोई ठोस चीज न मिली।