इस तरह महात्‍मा बुद्ध ने व्‍यापारी को सबक सिखाया कि परमात्‍मा किसी से धन संपत्ति नहीं चाहते वह तो भाव के भूखे हैं

शौरपुच्छ नामक व्यापारी बुद्ध का परम भक्त तो था, लेकिन उसे अपनी धन दौलत का बहुत अहंकार था। इसलिए बुद्ध उसकी सेवा-भक्ति के प्रति तटस्थ बने रहते थे। एक बार शौरपुच्छ ने बुद्ध के सामने एक लाख स्वर्ण मुद्राएं रखीं और बोला, ‘भगवन, यह राशि मेरी सेवा के रूप में स्वीकार करें। यह आपके काम आएगी।’ बुद्ध उसे सबक सिखाने के उद्देश्य से बिना कुछ बोले वहां से उठकर चले गए। बुद्ध के इस व्यवहार से शौरपुच्छ को अपना अपमान महसूस हुआ। वह स्वर्ण मुद्राएं समेटकर वहां से चला गया।

कुछ दिन बाद शौरपुच्छ तथागत की सेवा में फिर हाजिर हुआ, और उनके सामने आभूषण और कीमती वस्त्र रखते हुए बोला, ‘भगवन, यह भेंट स्वीकार करें। दीन-दुखियों के काम आएगी, मेरे पास अभी भी काफी धन है।’ बुद्ध इस बार भी वहां से उठकर चल दिए। इस पर शौरपुच्छ शर्मिंदगी महसूस करते हुए सोचने लगा कि बुद्ध को कैसे प्रसन्न करें। वह समझ गया कि बुद्ध को तो सेवा भाव से ही जीतना पड़ेगा। और वह अवसर भी शीघ्र आ गया।

उस दिन वैशाली में बड़ा धर्म सम्मेलन था। दूर-दूर से हजारों लोग उसमें आए थे। सैकड़ों शिष्य और भिक्षु व्यवस्था में समर्पण भाव से लगे थे। इस बार शौरपुच्छ चुपचाप सेवा कार्य में लग गया। रात हुई तो सब लोग विश्राम करने चले गए, लेकिन शौरपुच्छ तल्लीनता से अपने काम में लगा रहा। बुद्ध तो इसी मौके की तलाश में थे। वह चुपचाप उसके पास गए और प्रेम से बोले, ‘शिष्य, तुमने प्रसाद पाया या नहीं?’ शौरपुच्छ का गला रुंध गया, वह भाव-विभोर होकर बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। तब बुद्ध ने कहा, ‘वत्स, परमात्मा किसी से धन और संपत्ति नहीं चाहता। वह तो सिर्फ निष्ठा का भूखा है। यह निष्ठा उसे उनमें दिखती है, जो निष्काम भाव से सेवा करते हैं।’ यह सुनकर शौरपुच्छ गदगद हो गया।

संकलन : रमेश जैन