इस बालक की वजह से ब्रिटिश पादरी ने कभी नहीं की हिंदू धर्म की बुराई

उस वर्ष ग्रीष्मावकाश के बाद स्कूल खुले तो परिवार वालों ने तय किया कि नवरंग को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने के लिए शहर भेजा जाए। शहर था, ब्रिटिश इंडिया के समय का उत्तर-पश्चिम प्रांत गाजीपुर जो उनके गांव से बीस मील दूर था। स्कूल में एडमिशन मिल गया। वहां बाइबल पढ़ना अनिवार्य था।

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नवरंग राय को बाइबल पढ़ना अच्छा तो लगता था, पर बाइबल पढ़ाते समय जब दूसरे धर्मों विशेष रूप से हिंदू धर्म की बुराई की जाती तो उन्हें अच्छा नहीं लगता था। बाइबल स्कूल के पादरी पढ़ाते थे। असह्य हो जाने पर आखिर एक दिन नवरंग ने खड़े होकर जोर से कहा, ‘यह स्कूल है या धर्मों के खंडन-मंडन का केंद्र। धर्म की अच्छाई बताइए, बुराई मत करिए।’ इस आवाज से सभी चौंक उठे। कक्षा के सभी बच्चों की नजर नवरंग पर गड़ गई। वे किसी अनहोनी की आशंका से सिहर उठे।

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पादरी ने नवरंग को डांटना शुरू कर दिया। उन्हें अज्ञानी और अनुशासनहीन कहा। नवरंग चुपचाप सुनते रहे। उनकी चुप्पी से पादरी को लगा कि नवरंग ने गलती स्वीकार कर ली है। इसलिए वह विजयी महसूस कर रहे थे। इस घटना का अंत गरजती आवाज ‘बैठ जाओ’ के आदेश के साथ हुआ। साथ ही नवरंग को चेतावनी मिली, भविष्य में ऐसी अनुशासनहीनता करने पर स्कूल से निकाल दिए जाओगे। उनकी चुप्पी ने स्कूल के पादरी को अनुशासन पर भाषण देने का अवसर दिया। घंटी बजने तक अनुशासन पर भाषण चलता रहा। पादरी विजय भाव की भंगिमा के साथ बाहर निकले, पर वह अंदर से पराजित थे। उन्हें पता चल चुका था कि अपने धर्म को बड़ा बताने के लिए किसी और धर्म की बुराई करना उनकी कमजोरी बताता है। उसके बाद पादरी ने नवरंग के सामने कभी हिंदू धर्म की बुराई नहीं की। यही बालक नवरंग आगे चलकर स्वामी सहजानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुआ।– संकलन: हरिप्रसाद राय