सन 1864 में न स्त्रियां पांव में मोजे पहनती थीं, न ही उल्टे पल्लू की साड़ी बांधती थीं। भारत के अधिकतर हिस्से में स्त्रियां सिले हुए कपड़े नहीं पहनती थीं। बदन पर केवल साड़ी लपेटी जाती थी। हालांकि पुरुषों को पहनने-ओढ़ने की पूरी छूट थी। वे जो चाहे पहन सकते थे। इसी माहौल में ज्ञानदानंदिनी देवी सात वर्ष की उम्र में बांग्लादेश के जशोर से कलकत्ता के जोरासांको स्थित ठाकुर परिवार के देवेंद्रनाथ ठाकुर के दूसरे बेटे की ब्याहता और रबींद्रनाथ ठाकुर की भाभी बनकर आईं।
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उनके पति सत्येंद्रनाथ ठाकुर भारत के पहले आईसीएस अफसर बनकर बंबई गए, तो ज्ञानदानंदिनी भी उनके साथ गईं। वहां वे यूरोपीय लोगों के सामाजिक दायरे में आ गईं और अंग्रेजी शिष्टाचार अपनाने लगीं। सामाजिक स्थिति में इस बदलाव ने उसके लिए सही ढंग से कपड़े पहनना भी महत्वपूर्ण बना दिया। पति के साथ गुजरात यात्रा के दौरान उन्होंने गौर किया कि पारसी महिलाएं अलग तरीके से साड़ी बांधती थीं, जो फैशनेबल भी था और सभ्यता के अनुरूप भी। उन्होंने पारसी स्त्रियों की साड़ी पहनने की शैली में तनिक बदलाव करके अपनी अलग शैली बनाई।
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उन्होंने पल्लू को बाएं कंधे पर रखने की शुरुआत की, ताकि दाएं हाथ से काम करने में सुविधा रहे। साड़ी के साथ ब्लाउज और पेटीकोट को भी जोड़ा। उन्होंने ‘वामाबोधिनी’ नामक पत्रिका में स्त्रियों को साड़ी पहनने के लिए प्रशिक्षित करने का विज्ञापन दिया। बिहारी लाल गुप्ता, आईसीएस की पत्नी सौदामिनी गुप्ता कलकत्ता में उनसे इस नए ढंग से साड़ी बांधने का प्रशिक्षण लेने वाली पहली स्त्रियों में से एक थीं। यह शैली कलकत्ता की ब्रह्म महिलाओं के बीच ‘ब्रह्मिका’ साड़ी के नाम से लोकप्रिय हुई। साड़ी के साथ जूते और मोजे पहनने का चलन भी शुरू किया। उनकी उस जमाने में कटु आलोचना हुई, पर भारतीय स्त्रियों को एक सभ्य पहनावा हासिल हुआ।
संकलन : सुलोचना वर्मा