इधर-उधर देखकर ब्रह्मदास ने लोगों से पूछा, कहां हैं गुरुनानक देव? लोगों ने कहा, आप के सामने ही तो बैठे हैं। उसने सोचा कि शायद लोग उसका मजाक बना रहे हैं। यहां गुरुनानक तो हैं ही नहीं। निराश होकर वह लौट गया। घर आकर उसने अपने साथ गए नौकर से पूछा, क्या तुम्हें गुरुनानक देव दिखे थे? उसने भी कहा कि गुरुनानक देव वहीं पर थे। अगले दिन पंडित ब्रह्मदास विनम्रता के साथ चल कर गया, तो उसने देखा कि तेज मुखी गुरुनानक देव विराजमान हैं और सत्संग कर रहे हैं।
सत्संग खत्म होने के बाद ब्रह्मदास ने गुरुनानक देव से जाकर पूछा, ‘कल मैं यहां आया था, लेकिन आपको देख नहीं पाया। क्या कारण हो सकता है?’ गुरुनानक बोले, ‘उतने अंधकार में भला मैं तुमको कैसे दिखता!’ ब्रह्मदास बोला, ‘मैं तो दिन के उजाले में आया था। ऊपर चमकता सूरज मौजूद था, तो अंधकार कैसे हुआ?’ गुरुनानक ने कहा, ‘अहंकार से बड़ा कोई अंधकार है क्या? अपने ज्ञान और सिद्धि के अहंकार में तुम खुद को अन्य लोगों से ऊंचा समझने लगे।’ ब्रह्मदास को अपनी भूल समझ में आ गई। उसने गुरुनानक देव से मन की शांति और उन्नति का ज्ञान लिया और भविष्य में कभी अपनी सिद्धियों पर अभिमान नहीं करने का संकल्प किया। – संकलन : चंदन कुमार झा