संकलनः राधा नाचीज
संत सुकरात सत्य और सदाचार को सर्वोपरि धर्म बताया करते थे। उनका मत था कि जीवन में कितनी ही विषम परिस्थिति आ जाए, सत्य का त्याग कदापि नहीं करना चाहिए। सुकरात की तेजस्विता व निर्भीकता को देखते हुए गलत कर्मों में लगा एक बड़ा वर्ग उनका विरोधी बन गया। उन्हें सत्य से विचलित करने के लिए न केवल धमकियों का सहारा लिया गया बल्कि हर प्रकार के लोभ-लालच भी दिए गए। सुकरात पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ना था, नहीं पड़ा। लेकिन लगातार दुष्प्रचार से उनके खिलाफ माहौल बनता गया और नौबत यहां तक आ गई कि एक दिन उन्हें मृत्यु दंड सुना दिया गया।
आदेश था कि उन्हें जहर पिलाकर मार डाला जाए। तय तारीख पर सुकरात के कुछ करीबी अनुयायी वहां पहुंचे जहां उन्हें जहर पिलाया जाना था। उधर सुकरात के लिए जहर पीसा जा रहा था और इधर उनके अनुयायी रोते जा रहे थे। सुकरात के चेहरे पर भय या घबराहट का नामो-निशान नहीं था। पहले उन्होंने अपने करीबियों को समझाया, फिर उन्हें डांटा भी कि ‘तुम सबको मैं बार-बार समझाता रहा हूं कि आत्मा अमर होती है और जो कुछ मृत्यु से नष्ट होता है वह सिर्फ शरीर है तो फिर रो क्यों रहे हो?’ मगर भक्तों के लिए आज सब्र करना मुश्किल था।
आखिर सुकरात के लिए जहर तैयार हुआ जो उन्हें प्याले में भरकर दिया गया। सुकरात खुशी-खुशी उसे पी गए। कुछ देर बाद वे बोले, ‘जहर का प्रभाव दिखाई देने लगा है, मेरे हाथ पैर सुन्न और निर्जीव होने लगे हैं, परंतु मित्रो, याद रखना यह जहर मेरे भीतर के शील व सत्य का बाल भी बांका नहीं कर सकता क्योंकि शील व सत्य ही तो मेरी आत्मा है।’ कहते-कहते ही संत सुकरात की आंखें बंद हो गईं और वे सत्य व शील पर अपने अटल विश्वास की बदौलत अमर हो गए।