1935 में प्रख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर ने ‘रेणुका’ लिखी। ‘विशाल भारत’ ने संपादकीय लिखा, ‘रेणुका के प्रकाशन पर हिंदी वालों को उत्सव मनाना चाहिए।’ माधुरी में रेणुका की गणना हिंदी की सर्वश्रेष्ठ सौ पुस्तकों में की गई। बिहार के हिंदी और अंग्रेजी, दोनों ही भाषाओं के पत्रों ने उसका स्वागत किया। इससे ब्रिटिश हुकूमत के कान खड़े हो गए। अंग्रेजों ने ‘रेणुका’ का अंग्रेजी में अनुवाद कराया और दिनकर जी को चेतावनी दी। चेतावनी देने का काम मुजफ्फरपुर के जिला मैजिस्ट्रेट वौस्टेड को सौंपा गया।
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वौस्टेड ने पूछा, ‘क्या आप रेणुका के लेखक हैं?’ दिनकर जी ने स्वीकार किया। वौस्टेड बोला, ‘आपने सरकार विरोधी कविताएं क्यों लिखीं? प्रकाशन से पहले आपने सरकार से अनुमति क्यों नहीं मांगी?’ दिनकर जी ने कहा, ‘मेरा भविष्य साहित्य में है। अनुमति मांगकर किताबें छपवाने से मेरा भविष्य बिगड़ जाएगा। और रेणुका की कविताएं सरकार विरोधी नहीं, मात्र देशभक्तिपूर्ण हैं। अगर देशभक्ति अपराध हो, तो मैं वह बात जान लेना चाहूंगा।’ वौस्टेड बोला, ‘देशभक्ति अपराध नहीं है, वह अपराध कभी नहीं होगी।’ और दिनकर जी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
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फिर जब ‘हुंकार’ प्रकाशित हुई तो अंग्रेजों की ओर से चेतावनी मुंगेर के जिला मजिस्ट्रेट रायबहादुर विष्णुदेव नारायण सिंह ने दी। विष्णुदेव सिंह ने कहा, ‘यह रोज-रोज का टंटा क्यों करते हैं? सरकारी अफसरों के लिए अच्छा नहीं कि उनके पीछे खुफिया लगे। सरकार से अनुमति लेकर किताबें छपवाइए और नौकरी सेफ रखिए।’ दिनकर जी ने कहा, ‘मेरे सिर पर गरीब परिवार का भार है। मैं नौकरी छोड़ने की स्थिति में नहीं हूं। अनुमति मांगूंगा तो फिर कविता लिखने से क्या लाभ? कहिए तो कविता लिखनी ही छोड़ दूं?’ इस पर जिला मजिस्ट्रेट बोले, ‘अरे, कविता न लिखने से तो देश का ही नुकसान होगा। आप लिखिए।’ ऐसी थी दिनकर जी की कलम, जो ना आजादी के पहले रुकी, ना आजादी के बाद ठहरी।
संकलन : विजय मौर्य