कहने मात्र से संन्यासी या फकीर नहीं बन सकते, जीवन में उतारने पड़ते हैं उनके आदर्श

शाह शुजा को जब पता चला कि उनकी पुत्री वैराग्यपूर्ण भावनाओं से ओतप्रोत है तो वह सोच में पड़ गए। पुत्री विवाह की उम्र में पहुंच रही थी। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने उसका विवाह एक ज्ञानी फकीर से कर दिया। इसके पीछे उनका आशय था कि उसकी धर्मपरायण भावनाओं को ठेस न पहुंचे और वह अपने इच्छानुसार अपना जीवन व्यतीत कर सके। शाह शुजा की पुत्री शादी के बाद अपने फकीर पति के साथ खुशी-खुशी उसकी कुटिया में आ गई और कुटिया की सफाई करने लगी।

उसी वक्त उसने कुटिया की छत में एक छींका लटकते देखा, जिसमें दो सूखी रोटियां रखी थीं। उसने आश्चर्य से अपने पति की ओर देखा और पूछा, ‘ये रोटियां यहां पर क्यों रखी हैं?’ फकीर ने उत्तर दिया, ‘कल हम एक-एक रोटी खा लेंगे।’

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अपने पति की बात सुनकर वह हंस पड़ी और बोली, ‘मेरे पिता ने तो मेरी धर्मपरायण वैराग्यपूर्ण भावनाओं को देखकर ही मेरा विवाह आपके साथ किया। वे आपको बैरागी और अपरिग्रही ज्ञानी फकीर समझते थे। लेकिन आपको तो कल के खाने की चिंता आज से ही है। चिंता करने वाला सच्चा फकीर नहीं हो सकता है।’ वह बोलीं, ‘अगले दिन की फिक्र तो घास खाने वाले जानवर भी नहीं करते हैं, फिर हम तो मनुष्य हैं। मिला तो खा लेंगे, नहीं तो आनंद से प्रार्थना करते हुए रात व्यतीत करेंगे।’

फकीर ने अपनी पत्नी को अपने से भी दस कदम आगे समझा और मन ही मन उसके आगे नतमस्तक हो गया। फकीर बोला ‘आपने आज मेरी आंखें खोल दीं। सिर्फ कहने से कोई संन्यासी या फकीर नहीं हो जाता है। बल्कि उनके आदर्शों को जीवन में उतारना पड़ता है। आप एक राजा की बेटी हो कर राजमहल त्यागकर फकीर की कुटिया में आती हैं, लेकिन फकीर होने के बावजूद मुझे कल को पेट पालने की चिंता सता रही थी। सच में अब मेरी आंखें खुल गईं।’

संकलन : सुरेन्द्र अग्निहोत्री

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