क्‍या आपको पता है शिव कौन हैं और उनकी शक्ति कौन हैं ?

महाशिवरात्रि पर्व, सन 2021 में 11 मार्च को मनाया जाएगा। इस दिन भगवान शिव-शंकर की पूजा की जाती है। जाने-माने लेखक एवं आध्‍यात्मिक वक्ता, आचार्य प्रशांत के शिव एवं शिवत्व को लेकर विचार काफ़ी दार्शनिक एवं वैज्ञानिक हैं। इस लेख में वह शिव, शक्ति एवं चेतना के बारे में समझाते हैं।

शिव स्रोत हैं शक्ति के, पर स्वयं कभी गति नहीं करते – शिव की गति को ही ‘शक्ति’ कहते हैं। जब तक शिव हैं और शक्ति हैं, मामला बिल्कुल ठीक है, क्योंकि शक्ति का पूर्ण समर्पण, शक्ति की पूर्ण भक्ति शिव मात्र के प्रति है। वहां कोई तीसरा मौजूद नहीं।

शिव-शक्ति के बीच में किसी तीसरे की गुंजाइश नहीं, तो वहां पर जो कुछ है बहुत सुंदर है। शिव केंद्र में बैठे हैं, ध्यान में, अचल, और उनके चारों तरफ गति है, सुंदर नृत्य है शक्ति का। वहां किसी प्रकार का कोई भेद नहीं, कोई द्वंद नहीं, कोई टकराव नहीं, कोई विकल्प नहीं, कोई संग्राम नहीं।

केदार के कपाट, जानें पंचकेदार का क्या है महत्व

आदमी भी शिव-शक्ति का ही खेल है, बस दिक़्क़त यह है कि यहां पर तीसरा बैठा हुआ है। अरे, यह क्या हो गया? तुम्हारे हृदय में शिव हैं, लेकिन तुम्हारी गति में विशुद्ध शक्ति है कि नहीं, वह निर्भर करता है तुम्हारी चेतना पर और चेतना निर्णय ले सकती है। जब शिव और शक्ति मात्र हैं, तो हमने कहा-वहां कोई विकल्प नहीं होता। वहां बात बनी बनाई है कि शक्ति को किसको समर्पित रहना है? किसके संकेत पर चलना है? मात्र किसकी ओर देखना है? शिव की ओर।

आदमी के साथ ऐसा नहीं है। आदमी के हृदय और आदमी के जीवन के बीच में मन बैठा हुआ है और मन के पास दुर्भाग्यवश अधिकार है निर्णय का, विकल्प का। शक्ति निर्विकल्प हैं। शक्ति को शिव के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। शक्ति निर्विकल्प हैं। शक्ति से पूछो, “तुम्हारा मालिक कौन, स्वामी कौन?” उसे सोचना नहीं पड़ेगा, वह तुरंत कहेगी – “शिव”।

आदमी का मन ऐसा नहीं है, उसके पास विकल्प हैं। वह यह भी कह सकता है कि, “मेरे मालिक शिव हैं,” और यह भी कह सकता है कि, “मैं अपना मालिक स्वयं हूं।” गड़बड़ हो गई न! जब आदमी कह देता है—आदमी से मेरा तात्पर्य है आदमी का मन—कि, “मेरे मालिक शिव हैं,” तो वह निर्विकल्प हो जाता है। फिर उसकी ऊर्जा निर्विकल्प होकर के बहती है। उसे सोचना-विचारना नहीं पड़ता, निर्णय नहीं करना पड़ता, जीवन में द्वंद नहीं बचते। वह बैठकर सिर नहीं पटकता कि— क्या करूं, क्या न करूं। तुम नहीं पाओगे कि उसके चित्त की दशा ज्वार-भाटे की तरह है कि रंग बदल रही है बार-बार, क्योंकि उसने तो तय कर लिया। उसने अब डोर सौंप दी। उसने अब यह अधिकार ही अपने पास नहीं रखा कि कुछ और भी हो सकता है। जो होना था वह हो गया, मुक़दमे का फैसला आ गया है, निर्णय हो गया है। आखिरी बात हो गई है, डब्बा बंद, केस ख़त्म।

पंच केदार की तरह है पंच बदरी, इस तरह विराजते हैं भगवान विष्णु

शिव से अर्थ समझ रहे हो न? सत्य, हृदय
लेकिन मन यदि अभी वैसा नहीं हुआ है, मन अगर अभी निर्णय का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखना चाहता है, तो कभी तो ऐसा होगा कि वह कहेगा, “शिवोहम शिवोहम, मैं शिव हूं, मैं शिव का परम भक्त हूं, और शिव के अलावा मुझे कोई दिखाई नहीं देता।” उन क्षणों में क्या बात होगी मन की? बहुत सुंदर लगेगा, रस की गंगा बहेगी। लेकिन कुछ ही देर बाद तुम पाओगे कि मन ने अपना निर्णय पलट दिया। पलट क्यों दिया? क्योंकि निर्णय पलटने का अधिकार अपने पास बचाकर रखा था। तो स्वयं ही निर्णय किया था कि – “शिव, शिव, शिव,” और फिर स्वयं ही निर्णय कर लिया, “नहीं भाई, शिव नहीं, मामला गड़बड़ है। अपनी मालकियत हम शिव को नहीं दे सकते। हम ख़ुद तय करेंगे, नफ़ा-नुक़सान ख़ुद देखेंगे, अपना रास्ता ख़ुद बनाएंगे। हमें सब पर शक है और कभी-कभी तो हमें शिव पर भी शक होता है।”

बात समझ में आ रही है?जैसे ही यह होगा, वैसे ही अब मन ने अपने ऊपर बहुत भारी ज़िम्मेदारी ले ली। अब मन ने अपने ऊपर क्या ज़िम्मेदारी ले ली है? कि जीवन मैं चलाऊंगा। जब मन ने अपनी बागडोर शिव को दे दी तो अब जीवन किसको चलाना है? शिव को। पर जैसा ही मन ने कहा, “नहीं साहब, मेरी ज़िंदगी तो मेरे हाथ है। ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है और मेरे ऊपर।” वैसे ही अब मन के ऊपर जानते हो कितना बड़ा बोझ आ गया? कि अब तुम चलाओ ज़िंदगी। अब देखो कि भविष्य में क्या होगा। अब देखो कि तुम्हारे सारे रिश्ते-नातों का क्या होगा,तुम्हारी सारी संपदा का क्या होगा, तुम्हारे जीवन का क्या होगा। मन छोटा-सा, और ज़िम्मेदारी ले ली इतनी बड़ी, तो पगला जाएगा! चेतना माने वह जो कभी शिव की ओर भी जा सकती है, और कभी शिव के ख़िलाफ़ भी, चुन लो!