जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में जब रजाई से बाहर झांकने की भी हिम्मत ना हो फिर भी दिल आवाज लगाए… चलो मन गंगा जमुना तीर… तो समझ लेना चाहिए कुंभ का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। फिर क्या, हिलोरे लेता मां गंगा का पवित्र जल का स्पर्श पाने को यह आत्मा झटपटा उठती है। देखते ही देखते प्रयाग की रेती पर रंग-बिरंगे तंबुओं की फौज जमा होने लगती है। आस्था का यह जमावड़ा उतना ही पुराना है जितना प्राचीन मानवता का इतिहास है। इस कारवां में शामिल होने के लिए जैसे ही आप इलाहाबाद में दाखिल होते हैं कुंभ खुद ब खुद आपकी उंगली थाम कर आपको अपनी देहरी तक खींच लाता है।
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आपको किसी साइनबोर्ड, किसी गाइड की जरूरत नहीं पड़ती। रेल के डिब्बे या बस के दरवाजे से बाहर कदम रखते ही आपको पता भी नहीं चलता और आप दुनिया के सबसे बड़े तिलिस्म का हिस्सा बन जाते हैं। इस शहर में कुंभ गंगा किनारे लगने वाला एक मेला भर नहीं है, बल्कि यह टैंपो स्टैंडों, रिक्शों, चाय की दुकानों, धर्मशालाओं से होता हुआ गली-मुहल्लों तक बिखर जाता है। अक्सर उनींदा सा रहने वाला यह शहर इन दिनों आंखें मलता हुआ उठकर बैठ जाता है।
जब आप अपने चारों तरफ फैले इस विस्तार पर नजर ड़ालते हैं तो पाते हैं कि यह कितना व्यापक है, देश-विदेश से आए अलग-अलग आय वर्ग, आस्था, विश्वास और उम्र वाले श्रद्घालुओं की आंखों में उमड़ रहे विश्वास को देखकर अपने आप श्रद्घा से सिर झुक जाता है। मेला क्षेत्र में जाकर असलियत और खुलती है, ऐसा लगता है कि बिना वीजा, बिना परमिट-पासपोर्ट के आप दूसरी दुनिया में पहुंच गए हैं। एक ऐसे संसार में जो गंगा की अविरल धारा की ही तरह शाश्वत है लेकिनअदृश्य सरस्वती की तरह अब तक ना जाने कहां खोया हुआ था।
धीरे-धीरे यह बेहोशी टूटती है जब मेले में मस्त साधुओं को देखकर आपको अपनी आंखों पर भरोसा नहीं होता कि फकीरी और शहंशाही का इतना बेहतर मेल भी हो सकता है। बाइक पर सवार, घोड़ों की सवारी करते साधु, शरीर पर धूनी की राख लपेटे और गले में महंगा कैमरा लटकाए संन्यासी, हाथ में खप्पर लिए, जटाजूट का मुकुट सजाए, एक टांग पर खड़े हठयोगी। फिर आपको दिखते हैं वे संसारी लोग जो इस साधु समाज में समाहित होने की होड़ लगाए हैं।
इनमें भक्त हैं, जिज्ञासु हैं, श्रद्घालु हैं और सवाली भी। इस तरह के करोड़ों-करोड़ कुंभ लगे हैं गंगा की इस रेती पर। अब आप भी इसमें गले तक डूबकर डुबकियां लगाइए ताकि आपका मन थके हुए पंछी की तरह गंगा के ठंडे जल में अपने पंख भिगो ले, विश्राम करके उन्हें माघ के सूरज की धूप में सुखा ले। इसके बाद जीवन की भाग-दौड़ में फिर से उड़ान भरने को तैयार हो जाए।
सागर मंथन और अमृत कुंभ की भारतीय संस्कृति में लिखित इतिहास को उतना महत्व नहीं दिया गया है जितना श्रुति या पूर्वजों से सुनी हुई बातों को। इसलिए हमारी बहुत सी ऐसी परंपराएं हैं जो अनादि काल से चली आ रही हैं लेकिन इतिहास के पन्नों में काफी बाद में दर्ज हुईं। सनातनी सभ्यता में काल महज एक साल नहीं है बल्कि ईश्वर के अस्तित्व का ही अनंत विस्तार है।
बहरहाल, कुंभ मेले का भी पहला आधुनिक लिखित प्रमाण चीन के यात्री ह्वेनसांग के समय का है जब वह 629-645 ईस्वी में भारत आया था। भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी कुंभ का जिक्र है। कुंभ के पीछे की कथा भी बहुत प्रसिद्ध है। शास्त्रों के अनुसार एक बार दुर्वासा मुनि और देवों के राजा इंद्र की मुलाकात हुई। इंद्र पर प्रसन्न होकर मुनि ने अपने गले में पहनी हुई माला इंद्र को भेंट स्वरूप दे दी। इंद्र ने उसे प्रसाद समझकर ग्रहण तो किया लेकिन खुद ना पहनकर अपने हाथी ऐरावत के गले में डाल दी। ऐरावत ने अज्ञानतावश उसे सूंड में उठाकर पैरों तले कुचल दिया। यह देखकर मुनि दुर्वासा को बहुत क्रोध आया और उन्होंने इंद्र समेत सभी देवताओं को विपन्नता का श्राप दे दिया।
उस समय देवों और दानवों के बीच पहले से ही युद्ध चल रहा था। इस श्राप से देव पक्ष और कमजोर हो गया। वे सभी भगवान विष्णु के पास इस समस्या से उबारने के लिए गुहार लगाने पहुंच गए। भगवान विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया कि वे सागर मंथन करके अमृत प्राप्त करें और अपने आपको समृद्ध करें। देवताओं ने दानवों के सहयोग से सागर मंथन किया। मंथन के अंत में अमृत से भरा कलश निकला जिस पर अधिकार के लिए देवों और दानवों में फिर से युद्ध छिड़ गया। इंद्र का पुत्र जयंत उस कलश को लेकर उड़ चला, दानव उसके पीछे हो लिए। अंत में दानवों ने जयंत को पकड़ लिया, अमृत कलश पर कब्जे के लिए फिर से देवों और दानवों में युद्ध छिड़ गया जो 12 दिनों तक चला।
इस दौरान चंद्रमा, सूर्य, बृहस्पति और शनि ने भी अमृत कलश की रक्षा की। कोई फैसला ना होते देख भगवान विष्णु मोहिनी स्वरूप धारण करके आए और उन्होंने यथाधिकार सबमें अमृत बांटा। जहां अमृत छलका उसी स्थान पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। अमृत कलश पर अधिकार के लिए हुए छीना झपटी 12 दिनों तक चली जो मानवों के बारह वर्ष के बराबर होते हैं। इसीलिए कुंभ 12 वर्षों बाद मनाया जाता है। कुंभ भी 12 होते हैं उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं।
पृथ्वी पर यह चार जगहें है इलाहाबाद या प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। बृहस्पति और सूर्य तय करते हैं कि कुंभ का आयोजन कहां होगा। चूंकि चंद्रादि ग्रहों ने कलश की रक्षा की थी इसलिए जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है उसी राशि के योग में जहां-जहां अमृत बूंदें गिरीं वहां-वहां कुंभ पर्व होता है। जब बृहस्पति और सूर्य सिंह राशि में आते हैं तो कुभ नासिक के त्र्यंबकेश्वर में लगता है। जब सूर्य मेष राशि में आते हैं तो कुंभ हरिद्वार में लगता है। जब बृहस्पति वृष राशि में और सूर्य मकर राशि में आते हैं तो कुंभ इलाहाबाद में लगता है और जब बृहस्पति व सूर्य वृश्चिक राशि में आते हैं तो कुंभ उज्जैन में लगता है।
हर छह साल में अर्द्ध कुंभ हर 12 साल में पूर्ण कुंभ हर छह साल में हरिद्वार और इलाहाबाद में कुंभ मेले का आयोजन होता है। पूर्ण कुंभ हर 12 साल बाद इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में लगता है। महाकुंभ हर 12 पूर्ण कुंभों यानि 144 साल के बाद इलाहाबाद में लगता है। 2013 का पूर्ण कुंभ महाकुंभ भी है जो 144 साल बाद इलाहाबाद में लग रहा है। करोड़ों मुखों से हर हर गंगे की जयकार कुंभ स्नान के लिए देश-विदेश से असंख्य लोग आते रहे हैं।
आज यह संख्या करोड़ों में है। 2007 में इलाहाबाद में ही लगने वाले अर्द्धकुंभ में करीब 7 करोड़ लोग आए थे। इस वर्ष मेला क्षेत्र पहले से काफी बड़ा है। गंगा तट पर करीब 193 एकड़ जमीन मेला के लिए आवंटित की गई है। और बार की अपेक्षा इस बार कुंभ मेला 11 दिन ज्यादा चलेगा मतलब यह 44 की जगह 55 दिन के लिए आयोजित किया गया है।