एक चीनी व्यापारी ने बादशाह औरंगजेब को एक शीशा भेंट किया। बादशाह ने शीशे को महल के हरम में भिजवा दिया, देखा भी नहीं। एक दिन मलिका जेबुन्निसा छत पर धूप में बैठी थी कि उन्हें शीशे की याद आई। वह दासी से बोली, ‘जा! चीन से जो शीशा आया है, उसे ले आ।’ दासी दौड़कर गई, शीशा उठाया और उसने उस शीशे में अपना मुंह देखना चाहा। शीशा देखते ही वह अचंभित रह गई। वह इतनी खूबसूरत है। वाह! और फिर वह आपे से बाहर हो गई। अपने आप में जैसे खो गई। बेसुध! बेखबर! शीशा उसके हाथ से छूटा, फर्श पर गिरा और टूट गया।
अब तो दासी के पैरों तले की जमीन खिसक गई। चेहरा पीला पड़ गया। डरती-डरती उसने सोचा, अब तो मेरी खाल ही खिंचवा ली जाएगी। यह सोचते-सोचते वह वहीं पर सहमी-सहमी सी खड़ी रही। देर होने पर मलिका ने पुकारा, ‘अरी! तुझे शीशा लाने को कहा था न, पत्थर बन गई क्या?’ डरी हुई दासी आई और सहमी हुई बोली, ‘अज कजा आईना-ए-चीनी शिकस्त।’ यानी ‘मेरी शामत आ गई, राजकुमारी जी! मेरे खोटे कर्मों से वह शीशा टूट गया।’ फिर कठोर दंड की सोचकर थर-थर कांपने लगी। उसका कंठ सूख गया था। उसके प्राण जैसे उड़े जा रहे थे। माथा चकरा रहा था। परंतु उसे क्या पता, बेगम पर उपनिषदों का रंग चढ़ चुका था।
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भारत की मिट्टी ने मलिका जेबुन्निसा की रूह को हमेशा के लिए बदल दिया था। उन्होंने मुस्कराकर बड़े ही आत्म-संतोष के साथ जो कहा, वह प्रशंसनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। मलिका ने कहा, ‘अज कजा आईना-ए-चीनी शिकस्त, खूब शुद सामाने खुदबीनी परस्त।’ यानी अच्छा हुआ, विलासिता का एक सामान समाप्त हो गया। मैं प्रतिदिन उसे देखती, अपने सौंदर्य पर घमंड होता। अब उसे न मैं देखूंगी और न घमंड ही होगा।’ मलिका के मुख से यह सुन सब भौंचक्के रह गए। संकलन : राधा नाचीज
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