एक दिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने एक परिचित के घर पहुंचे। उनकी पुत्री पंडितजी के पास आई और उन्हें प्रणाम करके बोली, ‘हमें पढ़ना बहुत अच्छा लगता है लेकिन बाबूजी हमें और पढ़ने से मना कर रहे हैं। वे आपकी बहुत प्रशंसा करते हैं। आप बाबूजी को समझाइए न।’ नन्हीं सी बालिका की ये बातें सुनकर पंडितजी मुस्कराए बिना न रह सके।
उन्होंने बालिका के पिता को बुलाया और कहा, ‘तुम्हारी सुपुत्री तो बहुत होनहार है, तुम उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाओ।’ इस पर वह व्यक्ति बोला, ‘पंडितजी, लड़कियों को बस कामचलाऊ ज्ञान हो जाए बहुत है।’ पंडितजी बोले, ‘ऐसा कहां लिखा है या ऐसा तुमसे किसने कहा/ क्या तुम्हें यह ज्ञात नहीं कि शिक्षा का जितना संबंध व्यक्ति से है, उससे कहीं अधिक समाज से है/ क्या आज हम ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं जो सहज प्रवृत्तियों के सहारे जीवनयापन करता हो लेकिन शिक्षा से वंचित हो।
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क्या तुम्हें शिक्षा की परिभाषा ज्ञात है/’ पंडितजी बोले, ‘मनुष्य विभिन्न क्षेत्रों के अपने संपूर्ण अनुभव या उसके सारभूत अंश को विभिन्न उपायों द्वारा दूसरों तक पहुंचाता है। अनुभव प्रसारण की यही क्रिया शिक्षा है। यह अनुभव हर बालक एवं बालिका को प्राप्त करना चाहिए। बालक और बालिका दोनों ही देश के भविष्य हैं। शिक्षा जितनी अधिक व्यापक और गहरी होगी, समाज उतना ही संपन्न होगा। इसलिए तुम्हें अपनी बालिका पर गर्व करना चाहिए कि उसका रुझान शिक्षा की तरफ है।’
पंडितजी की बातों से उस व्यक्ति को अपनी गलती का अहसास हुआ। पिता ने अपनी पुत्री को गले से लगाया और कहा, ‘बेटी, आज से तुम अपनी शिक्षा को विस्तार देना आरंभ कर दो। मैं पढ़ाई-लिखाई से संबंधित तुम्हारी हर जरूरत पूरी करूंगा।’ यह सुनकर बालिका खुशी से चहकती हुई अपनी पुस्तकें लाने चली गई। दीनदयाल जी ने बालिका के उत्साह को देखकर उसे आशीर्वाद दिया और वहां से चले गए। संकलन : रेनू सैनी